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"चुनावी पकौड़े : हज़ूरों के शौक-ए-ज़ाइका"

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" चुनावी पकौड़े : हज़ूरों के शौक-ए-ज़ाइक़ा मूसलाधार चुनावी बारिश के मौसम में, चुनावी पकौड़े तलना हज़ूरों के शौक-ए-ज़ाइक़ा का अद्भुत और ज़ाइक़ेदार प्रयोग है।   अरे! ध्यान से कहीं ज़ाइक़ा न बिगड़े ! प्रस्तावना    जिसने कभी एक ग्लास पानी भी न पूछा हो,वही व्यक्ति जब आपके सुख-दुख बाँटने को लालायित(अत्यंत इच्छुक)दिखे,जगह-जगह और माध्यम-माध्यम से आपको राष्ट्र के प्रति ,विशेषकर आधुनिक जननायकों के प्रति, आपके कर्तव्यों का बोध कराया जाता है तथा जनसभाएं होती रहती है़ं,तो विद्वत समाज को यह समझना चाहिए कि आज गरमा-गरम पकौड़े अवश्य तले जाएंगे, जो चुनावी हैं।  इसे महोत्सव की संज्ञा देना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि चहुंओर आधुनिक जननायकों को बरसाती मेंढकों की तरह सबके घरों,सड़कों,सोशल मीडिया इत्यादि में टर्राते हुए देखा जा सकता है।   रेसिपी इन लजीज पकौड़ों को बनाने की भई पकौड़े तो सभी ने घरों में बनवाकर बहुत खाए होंगे-एक से एक ज़ाइकेदार,मसालेदार,लजीज व हर दिल अजीज।पर इस पकौड़े की तो बात ही कुछ और है,हो भी क्यों न! मामूली थोड़े ही हैं ये पकौड़े और इस बनाने-बाँटने वा...

धैर्य रखो कवियों थोड़ा जीवन दिशा बदलेगी

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आज स्वांतः सुखाय लिखने वाले कवियों की शीघ्र प्रसिद्धि की लालसा उन्हें कुछ कदम उठवा देती है,इसलिए उन्हें समझने के लिए यह कहना उत्तम होगा - "धैर्य रखो कवियों थोड़ा"! शीघ्र प्रसिद्धि की लालसा स्वांतः सुखाय लिखने वाला काव्यजगत कुछ भी लिखता है,तो उसकी लालसा शीघ्र प्रसिद्धि प्राप्त करने की केवल होती है। संभवतः इसी कारणवश किसी भी रचना को बस कर भर देना ही उनका ध्येय होता है। साहित्य को अभिरुचि नहीं अपितु साधना समझें साहित्यसुस्वादु की यदि बात पर विचार करें तो कोई भी साहित्यजगत में तब प्रसिद्धि पाता है जब इसे केवल अभिरुचि नहीं अपितु साधना समझा जाए। जिस प्रकार एक साधक साधना प्रारम्भ करने के पूर्व उसकी जड़ से,उसकी नींव से प्रारम्भ करता है उसी प्रकार एक। साहित्यकार को इसकी प्रारम्भिक कक्षाओं से अपनी यात्रा। प्रारम्भ करनी चाहिए,यथा :-अपने भावों को समष्टि के समक्ष। प्रस्तुत करने के लिए साहित्य की छोटी से छोटी बातों को। सीखना-समझना प्रारम्भ करना चाहिए। उनकी इसकी बारीकियों को सीखने की कोशिश उसी प्रकार होनी चाहिए जिस प्रकार एक पाकशास्त्री ...

अरे आत्म से हीन मनुष्यों अब विश्वास जगाना है !

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अरे आत्म से हीन मनुष्यों अब विश्वास जगाना है ! अरे ओ मनुष्यों! आत्म से हीन आज क्यों होते जा रहे हो,तुम पुरुषार्थहीन क्यों होते जा रहे हो,तुम्हारी भुजाओं में वो बल,तुम्हारी इच्छाशक्ति में अब उस दृढ़ निश्चय,उस सामर्थय की अनुभूति विरले ही क्यों हो पाती है ?जिसके प्रयोग से ही तुमने कभी माते गंगे के प्रबल वेग को नियंत्रित कर उन्हें धरा पर ससम्मान लाने के लिए शिव-संकल्प लिया था और उस संकल्प को अपने दृढ़ निश्चय,अटूट विश्वास से सम्पूर्ण करते हुए उन्हें धरा पर जगत कल्याण के उद्देश्य से उतारा भी था,पर आधुनिक युग में तुम्हारी ही पीढ़ियों में वह प्रबलतम इच्छाशक्ति,वह शिव-संकल्पीय सामर्थय क्यों नहीं दिख रहा है ? क्या उनकी भुजाओं में शिव-संकल्पीय सामर्थय को पुनर्प्रवाहित करने,पुनर्जागृत करने की अब पुनः आवश्यकता पड़ेगी ? मनुष्य की सुविधा पसन्दी धकेल रही विध्वंश के अँधकूप में मनुष्य आज इतना अधिक सुविधा पसन्द हो गया है कि वो किसी भी प्रकार से स्वयं को हुई असुविधा को स्वीकार ही नहीं पाता। पुरातन काल में जिसने अपने भुजबल से इस सम्पूर्ण धरा को शस्य-श्यामला बनाया था ,जो जिसके लिए गर्व की बात होती थी,उस मा...