धैर्य रखो कवियों थोड़ा जीवन दिशा बदलेगी

आज स्वांतः सुखाय लिखने वाले कवियों की शीघ्र प्रसिद्धि की लालसा उन्हें कुछ कदम उठवा देती है,इसलिए उन्हें समझने के लिए यह कहना उत्तम होगा -"धैर्य रखो कवियों थोड़ा"!

Dhairya rkho kaviyon thhoda



शीघ्र प्रसिद्धि की लालसा

स्वांतः सुखाय लिखने वाला काव्यजगत कुछ भी लिखता है,तो उसकी लालसा शीघ्र प्रसिद्धि प्राप्त करने की केवल होती है।
संभवतः इसी कारणवश किसी भी रचना को बस कर भर देना ही उनका ध्येय होता है।


साहित्य को अभिरुचि नहीं अपितु साधना समझें

साहित्यसुस्वादु की यदि बात पर विचार करें तो कोई भी साहित्यजगत में तब प्रसिद्धि पाता है जब इसे केवल अभिरुचि नहीं अपितु साधना समझा जाए।
जिस प्रकार एक साधक साधना प्रारम्भ करने के पूर्व उसकी जड़ से,उसकी नींव से प्रारम्भ करता है उसी प्रकार एक। साहित्यकार को इसकी प्रारम्भिक कक्षाओं से अपनी यात्रा। प्रारम्भ करनी चाहिए,यथा :-अपने भावों को समष्टि के समक्ष। प्रस्तुत करने के लिए साहित्य की छोटी से छोटी बातों को। सीखना-समझना प्रारम्भ करना चाहिए।
उनकी इसकी बारीकियों को सीखने की कोशिश उसी प्रकार होनी चाहिए जिस प्रकार एक पाकशास्त्री स्वादिष्ट। व्यंजनों के निर्माण के समय क्षुधावर्धक आवश्यक सामग्रियों का ध्यान रखता है।
उसी प्रकार एक साहित्यकार को अपने सृजन के समय अपने सृजन को पाठकों के लिए क्षुधावर्धक बनाना चाहिए।
आशय यह कि आपकी सृजन को पढ़ने के बाद व्यक्ति आपके सृजन को और अधिक पढ़ने को आतुर हो जाय।
सीखकर ही साहित्यजगत,काव्यजगत में कदम रखना अनिवार्य आवश्यकता है पर इसके लिए धैर्य की आवश्यकता होती है,जो आज कवियों में दिखता ही नहीं।इसी कारण आज यह कहना पड़ता है-"धैर्य रखो कवियों थोड़ा" !

सृजन कितना समाजोपयोगी,सार्थक व सर्वहितार्थ


कोई भी साधना सरल नहीं,इसके लिए साधक को अति परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता होती है।
साहित्य का आशय विशेषार्थों में सहित होता है अर्थात् जिसमें सबके हित की बात हो।
सारांश में एक साहित्यकार को साहित्य सृजन करते समय अत्यंत धैर्य व दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है।
किसी विषयवस्तु पर सृजन से पूर्व उसे इस तथ्य पर गहनतम अध्ययन कर लेना चाहिए कि सृजन कितनी समाजोपयोगी,सार्थक व सर्वहितार्थ प्रमाणित होगी।


गद्य विधाओं के सृजन मापदण्ड

साहित्यकार सृजन को लेखनीबद्ध नहीं अपितु
आत्मसात करे अर्थात तथ्यों को अपने दृष्टिकोण
से परखे व सृजन कारकों की अनुभूति करे और
तब विषयवस्तु पर अपना आधिपत्य स्थापित करे।
आधुनिक साहित्यकार वर्ग सृजन धर्मिता के इस गुण को विस्मृत करता जा रहा है।
सृजन धर्मिता अर्थात सृजन से समाज के लिए अधिकाधिक उपयोगी विषयवस्तु का चित्रांकन।सृजन धर्मिता को स्वयं में विकसित करने के लिए शब्दों के विपुल भण्डार व विभिन्न साहित्यिक विधाओं की सर्वदा ज्ञान की आवश्यकता होती है।
उदाहरणार्थ यदि साहित्यकार ने काव्यजगत में अपना पहला कदम ही रखा है तो उसे काव्य की विभिन्न विधाओं को सीखना
प्रारम्भ करना चाहिए।


गद्य विधाओं में आलेखों,व्यंग्य आलेखों,ललित निबंधों की लेखन प्रक्रिया व उसके प्रस्तुततीकरण इत्यादि की समुचित जिनकारी साहित्यकार को होनी अति आवश्यक है ।
उसे विषयवस्तु की परख उसी जौहरी के समान होना चाहिए
जो प्रत्येक रत्न को परखने की क्षमता रखता है।
कोई भी सृजनकार तभी ही सफलता को प्राप्त कर सकता है जब उसे साहित्य सुस्वादु के ज़ायके का भान,नहीं अपितु समाज में फैली कुरीतियों,अपराधों के फलस्वरूप चोटिल होने वाले प्राणी की संवेदनाओं,वेदनाओं,पीड़ाओं इत्यादि की अनुभूति हो।


सर्वसुखाय नहीं,अपितु सर्वहिताय सत्य का उपासक

एक साहित्यकार की अनिवार्य अहर्ताओं में यह भी बिन्दु अति विचारनीय है कि उसे सर्वसुखाय नहीं,अपितु सर्वहिताय सत्य का उपासक होना चाहिए।
हालांकि इस मार्ग पर चलनेवालों के मार्ग में फूलों की अपेक्षा शूलों की बहुलता मिलती है,पर एक साहित्यकार,सृजनकार होने के नाते,कवि होने के नाते उसे इस उक्ति को चरितार्थ करना ही होगा-"जहाँ न पहुँचे रवि,वहाँ पर पहुँचे कवि"।
जब एक साहित्यकार की तुलना,उसकी सर्वश्रेष्ठता को दर्शाने के लिए रवि से की जा रही है, तो उसका यह सर्वोपरि कर्तव्य भी है कि स्वयं को तपाकर ही कुन्दन बनाए और सर्वसुखाय नहीं सर्वहिताय सत्य को स्वीकारे।

Pita jeevan ko aadhaar dete hain

चतुष्चरणी अर्धसममात्रिक छंदों की सर्वव्यापकता

पद्य विधाओं में लेखन के लिए तुकांतता,मात्राज्ञान व शब्द-विन्यास की समझ होना अनिवार्य है।
प्रारम्भ के लिए दोहे जैसे अर्धसममात्रिक छंदों का चुनाव उत्तम है क्योंकि इस चतुष्चरणी अर्धसममात्रिक छंदों में लघुता के साथ सर्वव्यापकता का भी गुण विद्यमान है।
छंद यात्रा के इस प्रारम्भिक कक्षाओं से प्रारम्भ करने के पश्चात सृजन की सर्वोच्चता तक पहुँच पाना सरल हो जाता है।


अधीर होता काव्यजगत सस्ती प्रसिद्धि की ओर अग्रसर

आज का काव्यजगत अधीर होता जा रहा है इसलिए वो सस्ती प्रसिद्धि की ओर अग्रसर होता चला जा रहा है इसलिए वह अपने छुटपुट सृजन को भी श्रेष्ठ बताने के लिए वो प्रसस्ति पत्र प्राप्ति को ही सीखने की अपेक्षा प्राथमिकता देने लगता है और इसलिए कुछ सृजन न कर पाने की स्थिति में किसी के भी सृजन की प्रतिलिपि बनाकर मंचों पर प्रस्तुत करने लगते हैं जो एक सस्ती प्रसिद्धि के विकल्प चयन का परिचायक है।


साहित्यजगत अभिप्रेरक के रूप में

साहित्यजगत के प्राचीनतम इतिहास पर यदि दृष्टिपात करें तो हम पाएंगे की उस समय सृजन का मूल उद्देश्य अभिप्रेरणा होता था ,संभवतः इसी कारणवश स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में
क्रान्तिकारियों से अधिक साहित्यकारों,कवियों,व्यंग्यकारों इत्यादि को अँग्रेज़ों द्वारा जेलों में बन्द कर दिया जाता था क्योंकि युद्धक्षेत्र में गए बिना ही आन्दोलन के प्रतिभागी बने बिना ही इनकी लेखनी रिपुदल को धराशायी कर देती थी।
इसलिए वह सारा सृजन कभी खेतों में किसान बन आलसियों को झकझोरता, तो कभी युवाओं को उठो राष्ट्र के तूफ़ानी जलधाराओं संबोधित करते हुए देशहित में समर प्रयाण करने की प्रेरणा देता था। कभी इसने हठी सिंधु के घमण्ड को तोड़ने वाले श्रीराम के रूप में प्रस्तुत हुआ।
इसी साहित्यजगत ने देशप्रेम की भावना को आकार देने के लिए-" नर हो न निराश करो मन को" की परिकल्पना करते हुए देशहित में ना सोचने वालों को नरपशु मृतक समान कहकर संबोधित किया।


आधुनिक साहित्यजगत में इसी अभिप्रेरणा का अभाव-सा दर्शित होता है।
मैंने भी एक प्रशिक्षु साहित्यकार होने के नाते एक अभिप्रेरणा का प्रयत्न करते हुए आधुनिक साहित्यजगत का आह्वान किया है,यदि आह्वान समुचित लगे तो अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया अवश्य रखें।
ताटंक छंद विधान-१६-१४ की मात्रा पर यति तथा अन्तिम में तीन गुरु अनिवार्य तथा चार चरण समतुकांत

नहीं धैर्य जब कवियों में हो,कैसे कुछ भी सीखेंगे।

केवल व्यर्थ की बातों को ,ऐसे जबतक चीखेंगे।।

ओ कवियों!ये समझो थोड़ा,करो याद कविता सारी।

महाप्रलय की ज्वाला जिसमें,होती जिसमें थी भारी।।

आओ कवियों सीखें हम भी,कविताएं लिखनी ऐसी।

साधारण शस्त्र नहीं कोई,तीक्ष्णता हो छुरी जैसी।।

सन् सैंतालीस याद करो,कविताएं कैसी होती।

जिससे ही ढीली हो जाती,शासन अँग्रेजी धोती।।

भारत भूषण पाठक "देवांश"🙏🏻🌹🙏🏻


काव्य का भावार्थ :-आज कवियों में धैर्य का अभाव दृष्टिगोचर होता है,सीखने की इनमें अभिरुचि गौण हो रही है।
बस कुछ भी लिख भर देना इनका ध्येय बनता जा रहा है,आज हमें उन पुरातन काव्यों के मनन-मंथन की आवश्यकता है जो स्वातंत्रय काल में महाप्रलय का सामर्थय रखती थी। हमें भी अब वैसी ही कविताओं को लिखना सीखना होगा।
कुछ आवश्यक प्रश्न
१.क्या साहित्य सर्वहितार्थ होना चाहिए ?
उत्तर-निस्सन्देह,साहित्य सर्वहितार्थ होना ही चाहिए।
साहित्य का आशय स-हित ही तो होता है। 
इसमें जहाँ समाज के लिए उपयोगी दिशानिर्देश होता है,वहीं प्रत्येक उम्र के लिए पठनीय सामग्री होती है।
पर ध्येय यही कि इसमें एक अभिप्रेरणा हो।
२. छंदों में ताटंक छंद का क्या विशेष महत्व है ?
उत्तर-ताटंक छंद मंचों से पढ़ा जाने वाला एक ओजस्वी छंद है,जो मंच को बाँधे रखता है।
इस १६-१४ की यति वाले मात्रिक छंद के अंत में तीन गुरु अनिवार्य होते हैं तथा इसमें चार चरण या दो-दो चरण समतुकांतता का विधान है।
३.क्या दोहा छंद नवीन छंद साधकों के लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए?


उत्तर-यह सभी छंदों की रीढ़ है,गुरुजनों ने मार्गप्रशस्त करते हुए बताया है कि नवीन छंद साधकों को पूर्ण निष्ठा के साथ इस छंद का अभ्यास करना चाहिए।
४. दोहा छंद किस प्रकार का छंद है ?
उत्तर- विद्वतजनों के मार्गदर्शनानुसार यह एक अर्धसममात्रिक छंद है,सरलार्थों में कहा जाय तो यह वह छंद होता है जिसका पहला व तीसरा चरण तथा दूसरा व चौथा चरण समान होता है।


५.दोहा लेखन का प्रारम्भ कहाँ से हुआ?
उत्तर- संत तुलसीदास व कबीरदास द्वारा रचित पदों से प्रतीत होता है कि दोहा लेखन का श्रेय इन्हीं प्राचीन साहित्यकारों को जाता है।
६.दोहे छंद के विधान को लिखें ?
उत्तर-इस अर्धसम मात्रिक छंद के विषम चरण यानि पहले व तीसरे चरण में १३-११ की मात्रा पर तथा इसके सम चरण यानि दूसरे व चौथे चरण में ११-११ की मात्रा पर यति होती है।


७. दोहे के विषम चरणों का अन्त किस प्रकार करने से लय भंग नहीं होती ?
उत्तर- दोहे के विषम चरणों का अन्त लघु गुरु या(१ २) से होने से लय भंग नहीं होता है
८.दोहे के सम चरणों का अन्त किस प्रकार होना अनिवार्य है ?
उत्तर- दोहे के सम चरणों का अन्त समतुकांत व गुरु लघु (२ १)
पर होना अनिवार्य है।
९. दोहे के विषम चरणों के अन्त जगण शब्दों से नहीं होते हैं,जगण शब्दों से हमारा अभिप्राय क्या है ?
उत्तर- जगण शब्दों से हमारा अभिप्राय है लघु गुरु लघु (१ २ १)
यानि एक मात्रा,दो मात्रा और १ मात्रा वाले शब्दों से विषम चरणों के प्रारम्भ नहीं होते,इसके अपवाद के रूप में कुछ दोहे हैं:-संत कबीरदास,तुलसीदास इत्यादि के।


१०.मात्रा किसे कहते हैं ?
उत्तर-वर्णों को उच्चारित करने में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं।
#ताटंक छंद#शिखरिणी छंद#विधाता छंद#मनहरण घनाक्षरी
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