अरे आत्म से हीन मनुष्यों अब विश्वास जगाना है !

अरे आत्म से हीन मनुष्यों अब विश्वास जगाना है !

अरे ओ मनुष्यों! आत्म से हीन आज क्यों होते जा रहे हो,तुम पुरुषार्थहीन क्यों होते जा रहे हो,तुम्हारी भुजाओं में वो बल,तुम्हारी इच्छाशक्ति में अब उस दृढ़ निश्चय,उस सामर्थय की अनुभूति विरले ही क्यों हो पाती है ?जिसके प्रयोग से ही तुमने कभी माते गंगे के प्रबल वेग को नियंत्रित कर उन्हें धरा पर ससम्मान लाने के लिए शिव-संकल्प लिया था और उस संकल्प को अपने दृढ़ निश्चय,अटूट विश्वास से सम्पूर्ण करते हुए उन्हें धरा पर जगत कल्याण के उद्देश्य से उतारा भी था,पर आधुनिक युग में तुम्हारी ही पीढ़ियों में वह प्रबलतम इच्छाशक्ति,वह शिव-संकल्पीय सामर्थय क्यों नहीं दिख रहा है ? क्या उनकी भुजाओं में शिव-संकल्पीय सामर्थय को पुनर्प्रवाहित करने,पुनर्जागृत करने की अब पुनः आवश्यकता पड़ेगी ?
Are aatm se hin manushyon ab visvas jagana hai!


मनुष्य की सुविधा पसन्दी धकेल रही विध्वंश के अँधकूप में

मनुष्य आज इतना अधिक सुविधा पसन्द हो गया है कि वो किसी भी प्रकार से स्वयं को हुई असुविधा को स्वीकार ही नहीं पाता।
पुरातन काल में जिसने अपने भुजबल से इस सम्पूर्ण धरा को शस्य-श्यामला बनाया था ,जो जिसके लिए गर्व की बात होती थी,उस मानव को आज उस प्रकार के कार्यों को करना अपना अपमान प्रतीत होता है और उसके पीछे उसकी तकनीकी कुशलता होती है,इस तकनीकी कुशलता के अहं से ग्रसित होकर वह जीविकोपार्जन के अन्य विकल्प न रहने और अति अभाव की स्थिति में उन विपरीत कार्यों को करना उचित मान बैठता है जिसे "भारतीय दण्ड विधान "अपराध की संज्ञा देती है,यथा:-बैंक खातों से अवैद्य नकद निकासी,विभिन्न बैंकों के ए०टी०एम०से अवैद्य नकद निकासी,अन्य साइबर अपराध इत्यादि।
इन्हें करने के पीछे बस उनका यही तर्क रहता है कि इस क्षेत्र में
विकल्प ही विकल्प है,पर वह यह विस्मृत कर जाता है कि ऐसे विकल्प अविकल्पी बनाकर व्यक्ति को विध्वंश के अँधकूप में अतिशीघ्र ही धकेल दिया करते हैं।

तकनीक कुशल बन कृषि कार्य तथा अन्य क्षेत्रों में विकल्प ही विकल्प

उपरोक्त तथ्य का दूसरा पक्ष यह भी है कि कुछ लोग तकनीक कुशल बन कृषि कार्य तथा अन्य क्षेत्रों में विकल्प ढूँढना पसन्द करते हैं। आज ये तकनीक कुशल लोग कृषि कार्य के लिए आवश्यक अत्याधुनिक उपकरणों की समझ विकसित कर जीविकोपार्जन के अन्य विकल्पों के अभाव में लौटते जा रहे हैं,जहाँ विकल्प ही विकल्प उपलब्ध हैं।

तकनीक कुशल विपरीत मार्गगामी लोग और उनके कुकृत्यों के फलस्वरूप सहन करता समाज

मनुष्य सदैव से बुद्धिजीवी रहा है जिसका निवास स्थान समाज है।इस बुद्धिजीवी प्राणी के समाज में निवास करने से जहाँ समाज कभी इसके पुनीत कर्मों से लाभान्वित होता है,तो कभी अवसाद के घनघोर घटाओं के मध्य घिर जाता है।
  एक तो बुद्धिजुवी,उस पर विपरीत मार्गगामी तकनीक कुशल अर्थात क्षुधातुर(भूखे) व्याध (शिकारी)के हाथों में जब शस्त्र सौंप दिया जाए तो वो शस्त्र रक्षण के से कम और प्रतिघात के लिए अधिक ही उठाए जाएंगे यह स्वाभाविक ही है। ये विपरीत मार्गगामी तकनीकी शस्त्रधारी इस शस्त्र का अंधाधुंध प्रयोग कर
इस संसार में भीषण उत्पात मचाना प्रारम्भ कर देते हैं क्योंकि इनका यही मानना होता है कि स्वसुख से बढ़कर कुछ भी नहीं।
  सरलार्थों में इनकी कथनी के अनुसार आमजनमानस अवसादों के भले ही रसातल में क्यों न जाए,अपना काम बनना अवश्यक है।परसन्तुष्टि नहीं,अपितु स्वसन्तुष्टि आवश्यक है।
   उनके इसी विचारधारा के कारण इसके खामियाजे,इसके   दुष्परिणाम जरूरतमंद समाज को वहन करना पड़ता है।
 उनके इसी आतंक और छलावे के कारण किसी की सहायता के लिए आवश्यकता पड़ने पर कोई भी प्रस्तुत नहीं हो पाता।

तकनीक कुशल लोगों  के कुकृत्य और इसके दुष्परिणाम

मनुष्य स्वार्थलोलुपता से इतना अधिक ग्रसित हो चुका है कि उसे भले-बुरे से कोई विशेष मतलब नहीं होता। वह एक क्षण के लिए भी अपने द्वारा कृत्यों को करने से पहले यह विचार नहीं करता कि इसके क्या परिणाम या दुष्परिणाम होंगे।
 इस प्रकार की स्थिति में वह ऐसे जघन्य अपराधों को कर जाता है जो किसी को अपनी जीवन लीला तक समाप्त करने पर विवश कर देते हैं।इन तकनीक कुशल लोगों के कुकृत्यों के अनगिनत दुष्परिणाम होते हैं,जिसमें से कुछ महत्वपूर्ण दुष्परिणाम नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ:-
  •  किसी देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता प्रभाव।
  • सामाजिक समरसता को पहुँचाते नुकसान।
  • आवश्यक सुविधाओं में डालते अवरोध।
  • नारी अत्याचार को बढ़ावा देने वाले कारक।
  • शिक्षा जगत पर भी डाल रहे प्रभाव।              
आज पहली बार व्यंग्यात्मक रचना उन निकम्मों के लिए जिन्हें स्वयं पर विश्वास ही नहीं रहा कि अपने बल पर ही कुछ किया जाए,तभी तो उन्हें दूसरी की आईडी०की आवश्यकता पड़ती है।कहीं बैठ ये गाल बजा रहे होंगे क्योंकि इन लोगों का फंडा ही है अपना काम बनता,भांड़ में जाए जनता...अमाँ यार,वित्तीय समस्या मेरी भी है,सच कहूँ तो हम सबकी है तो क्या करूँ दूसरे की आईडी०का उपयोग करूँ,शायद तुमको पता नहीं,तुम्हारी इस हरकत से असल में दुःखी प्राणी की सहायता नहीं हो पाती है,तो समर्पित है तुमलोगों को ऐसी रचनाएं:-

Marmagyaata premchand vednaon ke visheshagya

अरे !आत्म से हीन मनुष्यों,अब विश्वास
जगाना है।
छोड़ो तुम ये गोरखधंधे,प्रेम-प्रसून उगाना है।।
माँ भारती के वीर सपुतों,पढ़ इतिहास कभी जाना।
हे भारतवंशी!बोल अभी,तुमने ये कैसे माना।।
हे मानव!आज बताना है, तपने से डरता तू क्यों ।
क्या ऊर्जा तुझमें शेष नहीं,दीप तेल बिन बूझे ज्यों।।
हे अंगुलिमाल यही पूछो,कौन साथ तुम्हारे हैं।
परिवारजनों या साथी में,तुमपे कितने वारे हैं।।
शूली तुम चढ़ जाओगे,बोलो कितने रोएंगे।
सोचना कुछ तुम्हें हो जाए,भूखे पेट वो सोएंगे।।
कोई भी नाम नहीं लेगा,पन्नों में रह जाओगे।
वो बच्चे तुमको ढूँढेंगे, तुम फिर कैसे आओगे।।
भारत भूषण पाठक"देवांश"🙏🌹🙏


चतुष्चरणी अर्धसममात्रिक छंदों की सर्वव्यापकता
पद्य विधाओं में लेखन के लिए तुकांतता,मात्राज्ञान व शब्द-विन्यास की समझ होना अनिवार्य है।
प्रारम्भ के लिए दोहे जैसे अर्धसममात्रिक छंदों का चुनाव उत्तम है क्योंकि इस चतुष्चरणी अर्धसममात्रिक छंदों में लघुता के साथ सर्वव्यापकता का भी गुण विद्यमान है।
छंद यात्रा के इस प्रारम्भिक कक्षाओं से प्रारम्भ करने के पश्चात सृजन की सर्वोच्चता तक पहुँच पाना सरल हो जाता
कुछ आवश्यक प्रश्न
१.क्या साहित्य सर्वहितार्थ होना चाहिए ?
उत्तर-निस्सन्देह,साहित्य सर्वहितार्थ होना ही चाहिए।
साहित्य का आशय स-हित ही तो होता है।
इसमें जहाँ समाज के लिए उपयोगी दिशानिर्देश होता है,वहीं प्रत्येक उम्र के लिए पठनीय सामग्री होती है।
पर ध्येय यही कि इसमें एक अभिप्रेरणा हो।
२. छंदों में ताटंक छंद का क्या विशेष महत्व है ?
उत्तर-ताटंक छंद मंचों से पढ़ा जाने वाला एक ओजस्वी छंद है,जो मंच को बाँधे रखता है।
इस १६-१४ की यति वाले मात्रिक छंद के अंत में तीन गुरु अनिवार्य होते हैं तथा इसमें चार चरण या दो-दो चरण समतुकांतता का विधान है।३.क्या दोहा छंद नवीन छंद साधकों के लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए?


उत्तर-यह सभी छंदों की रीढ़ है,गुरुजनों ने मार्गप्रशस्त करते हुए बताया है कि नवीन छंद साधकों को पूर्ण निष्ठा के साथ इस छंद का अभ्यास करना चाहिए।
४. दोहा छंद किस प्रकार का छंद है ?
उत्तर- विद्वतजनों के मार्गदर्शनानुसार यह एक अर्धसममात्रिक छंद है,सरलार्थों में कहा जाय तो यह वह छंद होता है जिसका पहला व तीसरा चरण तथा दूसरा व चौथा चरण समान होता है।


५.दोहा लेखन का प्रारम्भ कहाँ से हुआ?
उत्तर- संत तुलसीदास व कबीरदास द्वारा रचित पदों से प्रतीत होता है कि दोहा लेखन का श्रेय इन्हीं प्राचीन साहित्यकारों को जाता है।
६.दोहे छंद के विधान को लिखें ?
उत्तर-इस अर्धसम मात्रिक छंद के विषम चरण यानि पहले व तीसरे चरण में १३-११ की मात्रा पर तथा इसके सम चरण यानि दूसरे व चौथे चरण में ११-११ की मात्रा पर यति होती है।


७. दोहे के विषम चरणों का अन्त किस प्रकार करने से लय भंग नहीं होती ?
उत्तर- दोहे के विषम चरणों का अन्त लघु गुरु या(१ २) से होने से लय भंग नहीं होता है
८.दोहे के सम चरणों का अन्त किस प्रकार होना अनिवार्य है ?
उत्तर- दोहे के सम चरणों का अन्त समतुकांत व गुरु लघु (२ १)
पर होना अनिवार्य है।
९. दोहे के विषम चरणों के अन्त जगण शब्दों से नहीं होते हैं,जगण शब्दों से हमारा अभिप्राय क्या है ?
उत्तर- जगण शब्दों से हमारा अभिप्राय है लघु गुरु लघु (१ २ १)
यानि एक मात्रा,दो मात्रा और १ मात्रा वाले शब्दों से विषम चरणों के प्रारम्भ नहीं होते,इसके अपवाद के रूप में कुछ दोहे हैं:-संत कबीरदास,तुलसीदास इत्यादि के।


१०.मात्रा किसे कहते हैं ?
उत्तर-वर्णों को उच्चारित करने में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं।
#ताटंक छंद#शिखरिणी छंद#विधाता छंद#मनहरण घनाक्षरी

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