रंगमंच है ये दुनिया:-एक अभिनयमंच बड़ी है(Rangmanch hai ye duniya:-ek abhinaymanch bdi hai)

 क्या रंगमंच है यह दुनिया और यहाँ जन्म लेने वाला हर प्राणी पात्र ?

रंगमंच अर्थात् वह विशेषतम स्थान जहाँ हर्ष व विषाद के सामंजस्य के प्रतिफलस्वरूप आनंद का उद्भव होता है,ऐसा कहना यथार्थ ही तो है।

Manav jeevan ka shaar




Rangamanch hai ye duniya:-Ek abhinaymanch hai bdi


  इस संसार की यदि बात की जाय,तो यह वह स्थान है जहाँ प्राणी जन्म लेने के साथ ही अभिनय करने लगता है।उसके जन्म पश्चात  प्रथम रोने के अभिनय के साथ उसके जीवन नाट्य का प्रारम्भ होता है अर्थात् वह उसके पश्चात सांसारिक आचरण-व्यवहार करने में निपुण हो जाता है।

वह सुखी,सम्पन्न व सर्वश्रेष्ठ है इस मिथक के साथ अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ करता है।

Rangamanch hai ye duniya:-ek abhinaymanch bdi hai

अपने पात्रता को दर्शाने में प्रवीण यहाँ हर एक पात्र

जीवन यात्रा को प्रारम्भ करने के पश्चात प्राणी अपने सगे-संबंधियों व आसपास के वातावरण से इस अहं का संपोषक बन जाता है कि उससे शक्तिमान कोई नहीं,वह संसार के प्रत्येक कार्यों को करने में प्रवीण है।
जब किसी के हिस्से में सुख आता है,तो उसे ऐसा लगने लगता है कि वह सदैव ही सुखी रहेगा और दुख उसे स्पर्श तक नहीं कर सकता।
विडम्बना तो तब होती है जब किसी की सम्पन्नता समाप्त नहीं होती और किसी की विपन्नता उसका साथ छोड़ देना नहीं स्वीकार करती।

दुख नहीं किसी के सुख को देखकर यहाँ परेशान रहते हैं लोग

इस अभिनयमंच के निर्देशक ने मानव जीवन नामक चलचित्र की पटकथा इस प्रकार वर्णित कराई है कि इसमें विचित्रता ही विचित्रता दृष्टिगोचर होती है।
 इस चलचित्र के प्रथम दृश्य में ही यह कैसी विडम्बना का दर्शन है कि लोग यहाँ किसी के दुख से कम ही सुख से अधिक परेशान रहते हैं।

प्रत्येक पात्र अपना श्रेष्ठतम प्रदान करने को रहता है तत्पर

इस जीवन मार्ग में चलने वालों में एक ऐसी अलौकिक शक्ति आ जाती है जिससे यहाँ नवोद्भिद से नवोद्भिद ,नवसिखुआ से नवसिखुआ,नवप्रशिक्षु से नवप्रशिक्षु जीव भी उन्नत ज्ञान और अभिनय से परिपूर्ण हो यहाँ अपने अथक श्रमदान  से नवप्रशिक्षु से परिवर्तित हो अपने जड़ों यानि बौद्धिक क्षमता का विकास कर अनुभव का वह कल्पवृक्ष बन जाता है, जिसके छत्रछाँव में जीव संपोषित
होकर उस अभिनय मंच पर जहाँ पर इस चलचित्र के प्रत्येक पात्र अपना श्रेष्ठतम प्रदान करने को तत्पर रहते हैं।
  इस सांसारिक अभिनय मंच को परिपक्व बनाने का श्रेय
  संघर्षरूपी डोर को जाता है,जिस पात्र ने यहाँ जितना   अधिक संघर्ष यात्रा किया। वह उतना अधिक यहाँ   अपने अभिनय का श्रेष्ठतम योगदान दे पाया।

आनंद,हर्ष व विषाद के हृदयकोष में ही सदैव अभिनय मंच का उद्भव होता है

इससे इस प्रकार भी वर्णित किया जा सकता है कि जीवन के विभिन्न रंगों को दर्शाने वाले इस अभिनय मंच की स्थापना के  केन्द्रबिन्दु में आनन्द,हर्ष व विषाद जैसे मनोभाव ही प्रस्तुत होते हैं।

स्वलाभ पर केन्द्रित हैं आज के ये अभिनय मंच

आज के ये अभिनय मंच अभिप्रेरण से दूर होते जा रहे हैं,पुराकाल में अभिनय मंचों का ध्येय होता था एक स्वच्छ वातावरण का निर्माण करते हुए व्यक्ति को एक श्रेष्ठ नागरिक बनने को प्रेरित करना,परन्तु आज के इस अभिनय मंच का अभिप्राय केवल स्वलाभ पर केन्द्रित 
प्रतीत होता है।
 इसमें अभिप्रेरण,नवप्रवर्तन,चरित्र निर्माण जैसे विषयवस्तु
की गौणता दृष्टिगोचर होती है।
  समाज को दूषित करने के सामर्थय का परिचायक इससे अधिक क्या हो सकता है कि व्यक्ति आज स्व-उत्थान की प्रक्रिया से विलग हो स्व-विध्वंश की ओर अग्रचर हो रहा है।

पुराकाल में व्यक्ति में सदाचार की भावना संचारित किया करते थे ये अभिनय मंच

पुराकाल में इन अभिनय मंचों के माध्यम से व्यक्ति में सदाचार की भावना संचारित की जाती थी,जिससे वह मानवीय मूल्यों से संपोषित हो सके पर आज के अभिनय मंचों की कृपादृष्टि के उदाहरण से यह प्रस्तुत होता है कि मानव मानवीय मूल्यों से विलग हो अमानवीय होता जा रहा है।

कठपुतली नहीं हैं इस अभिनय मंच के पात्रगण

अभिनय मंच वह मंच है जहाँ एक अभिनयकर्ता को इस कसौटी पर परखा जाता है कि वह अपने अभिनय के सम्पूर्ण कसौटी पर खरे उतरे,जिससे कि इस बात की पुष्टि
हो सके कि उसके द्वारा किये गए अभिनय उसके सम्पूर्ण
 अभ्यास का प्रतिफल है न कि उसने कठपुतलीवत हुबहु प्रदर्शन सर्वदा ही किये हैं।
आज इस समस्त चराचर को उसी प्रकार जिस प्रकार एक Pita jeevan ko aadhar dete hain उसी तरह ही एक दूसरे को सहयोग की  छाँव देकर आगे बढ़ने में सहायता करना चाहिए।

निष्कर्ष :-सम्पूर्ण संसार इस धोखे में रहता है कि वह  अमृतत्व को प्राप्त है,इसलिए वह चिरंजीवी बना रहेगा।    इसलिए अपने किरदार की सार्थकता,उसकी सटीकता पर अधिक चिन्तन नहीं करता क्योंकि यह अखिल जगत जो एक रंगमंच की तरह है,यहाँ इसी दुविधा,असमंजस की स्थिति में रहता है कि वह अविनाशी है,अमर है,अजर है,इसलिए वह अजीर्णता,अजरता को प्राप्त कदापि नहीं हो सकता।
    उसके द्वारा यहाँ किये जाने वाले जघन्य से जघन्य        कृत्य का लेखा-जोखा रखने वाला कोई नहीं है इसी धोखे में वह जघन्य से जघन्य कृत्य कर इस अभिनय मंच
 पर  तनिक भी चिन्ता प्रस्तुत नहीं करता।


अन्त में इस विषय पर मेरे दृष्टि में रंगमंच को परिभाषित करते कुछ दोहे छंदयुक्त पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

छंद विधान:-इस अर्धसममात्रिक १३-११ पदांत वाले छंद में चार चरण होते हैं।
 इस दोहे छंद की विशेषता यही है कि अल्पशब्दों में अधिकांश कहने या वर्णन करने का प्रयास इसमें किया जाता है।
कल संयोजनों पर आधारित इस छंद में कल-संयोजन का विशेष ध्यान रखा जाता है।

कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न:-
प्रश्न १ :- रंगमंचों का महत्व क्या है ?
उत्तर-मेरे अनुसार इन रंगमंचों का महत्व यही है कि इनसे समाज को श्रेष्ठ आचरण करने  व सकारात्मकता के प्रवाहण की प्रेरणा मिलती है क्योंकि व्यक्ति कुछ करने से पूर्व सीखने को अधिक महत्व देता है।

प्रश्न २ :- क्या रंगमंचों में नाट्यकला का प्रदर्शन होता है ?
उत्तर -रंगमंचों के माध्यम से ही नाट्यकला का प्रदर्शन होता है क्योंकि इन नाट्यकलाओं के माध्यम से ही समाज में जन जागृति की जाती है।

प्रश्न ३ :- रंगमंच की उत्पत्ति किन शब्दों से हुई है ?
उत्तर- इसकी उत्पत्ति दो शब्द रंग और मंच से हुई है जिसका अर्थ है वह स्थान जहाँ  अभिनय के माध्सयम से मानता रूपी  रंग का प्रसार समस्त मंच यानि सृष्टि में हुआ करता है।

प्रश्न ४ :-क्या रंगमंचों के माध्यम से अभिनयकर्ताओं को सुदृढ़ बनाया जाता था ?
उत्तर-हाँ रंगमंचों के माध्यम से अभिनय कर्ताओं को सुदृढ़ बनाया जाता था। 

रंगमंच जीवन बड़ा,नाच नचाए खूब।

हिम्मत जो रखता नहीं,हरदम जाता डूब।।१



कठपुतली केवल सभी ,खींच रहा वो डोर।

बंद हुआ तब नाचना,ऊपर से जब ज़ोर।।२



रंगमंच ये जो बना,मिला बहुत है रंग।

जीवन जीने को यहाँ,कितने होते ढंग।।३



 कोई रोता है यहाँ,कोई हँसता  यार।

दर्द प्रजा की देखके,खुश दिखे सरकार।।४

भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏

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