साँचि मित्रता पूँजी भाई -मित्रता एक सुधा कलश

साँचि मित्रता पूँजी भाई-मित्रता एक सुधा कलश

साँचि मित्रता पूँजी है भाई,सत्य ही तो है सच्ची मित्रता पूँजी के समान ही तो है।

जीवन भर किसी ने भले ही धन न कमाया हो,पर यदि उसके एक ही सच्चे मित्र  हों ,जो सुख-दुख में समान

भाव से साथ रहे तो उसके जीवन में आने वाली बाधाएँ अपना मार्ग निस्सन्देह बदल ही लेती हैं।

Sanchi mitrata poonji bhai-Mitrata ek sudha kalash


सच्ची मित्रता की परिभाषा

वह व्यक्ति जो सदैव हमारे साथ अपने अभीष्ट सिद्धि के लिए रहता है,उसे सही अर्थ में मित्र नहीं कहा जा सकता क्योंकि सच्चा मित्र मान-अपमान,ईर्ष्या,द्वेष,लालसा इत्यादि से परे होता है।उसे अपने मित्र की भावनाओं-संवेदनाओं की भली-भाँति ज्ञान होती है।

उपरोक्त के आधार पर सच्चे मित्र की यह परिभाषा स्पष्ट होती है कि जो सदैव सुख-दुख में हमारे साथ रहे,जो अपने सुख-दुख के विषय में कम,हमारे विषय में निरन्तर अधिक चिन्तन करे,वही सही अर्थों में हमारे सच्चे मित्र हो सकते हैं।  

सच्चा मित्र एक पथ प्रदर्शक 

मित्रता एक भाव है जिसे स्पर्श नहीं किया जा सकता,अपितु इसकी अनुभूति की जा सकती है,इसकी नाप-तौल संभव नहीं,पर इसकी अनुभूति हमें असंख्य पुष्पों के सुगन्धि-सी प्रतीत होगी।
जब हमारे जीवन में एक सच्चे मित्र का प्रवेश होता है तब हम कभी भी विपथिथ नहीं होते।
विपथन की स्थिति में वह सच्चा मित्र हमारे पथ का प्रदर्शन करता है और हमें उचित पथ पर पुनः ले आता है।

आनन्द के क्षणों में केवल साथ रहने वाले मित्र नहीं

सुख में सुमिरन सब करे,दुख में करे न कोय।
सुमिरन दुख में जो करे मित्र वही तो होय।।
यह उक्ति इस सत्य को परिभाषित करती है कि आज
 इस स्वार्थ प्रधान समाज में सभी एक-दूसरे को सुख 
में ही सुमिरन अर्थात स्मरण करते हैं,पर क्या केवल 
आनन्द के क्षणों में ही स्मरण करने वाला सच्चा
 मित्र है,नहीं न! तो वास्तव में सच्चे मित्र कौन होते हैं ?
 तो उपरोक्ति उक्ति इसकी व्याख्या स्पष्ट करते हुए   समझाती है कि जो सुख में ही नहीं दुख में,आनन्द ही   नहीं घोर अवसाद में भी हमें स्मरण करता है,वही सच्चा मित्र है।

विभिन्न परिस्थितियों में साथ रहने वाले मित्र और उनका वर्गीकरण

१. घोषित मित्र :- इस प्रकार के मित्र अपने नाम के अनुरुप ही होते हैं,इनकी मुख्य विशेषता यही है कि वह हमारे मना करने पर भी हमसे सम्बन्ध जोड़ने में लगे रहते हैं।

इस प्रकार की मित्रता रखने वाले अपनी मित्रता को प्रारम्भ करने के लिए वस्तुओं के बलात आदान-प्रदान को माध्यम बनाते हैं,हमारी इच्छा हो या न हो ये अपनी मित्रता को स्थापित कर के ही दम लेते हैं।

घोषित मित्रता के लाभ
इस प्रकार की मित्रता के अनेकों लाभ होते हैं क्योंकि इस प्रकार की मित्रता करने वाला व्यक्ति प्रत्येक स्थिति व परिस्थिति में अपने द्वारा स्थापित की गयी मित्रता को स्थायी रखना चाहता है, इसलिए वह हर संभव प्रयत्न करता है जिससे उसकी मित्रता बनी रहे।उसके इन प्रयासों के कारण लाभुक मित्र को प्रत्येक परिस्थिति में उसका सहयोग मिलता रहता है।
सारांश में इस प्रकार की मित्रता को भी सच्ची मित्रता के श्रेणी में ही वर्गीकृत किया जा सकता है।

२. अघोषित मित्र :- मित्रता का वह प्रकार जिसमें व्यक्ति।    प्रत्यक्ष तो नहीं होता,पर अप्रत्यक्ष रूप में 

अपने मित्र की कुशल-क्षेम पूछता रहता है। इस प्रकार की मित्रता  वाले लोग अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य केवल अपने मित्र की कुशलता-अकुशलता जानना बना लेते      हैं।

अघोषित मित्रता से हानि
 पूर्व में ही जैसा मैंने लिखा है कि इस प्रकार की मित्रता रखने वाले लोगों के जीवन का एकमात्र ध्येय मित्र की कुशलता-अकुशलता जानना होता है,इस दृष्टिकोण से वो अपने मित्र के लिए सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी बनकर अप्रत्यक्ष  रूप से ही प्रस्तुत होते रहते हैं।
 इसके बावजूद भी ऐसे मित्र आपकी कुशलता की   कामना करने वाले होते हैं।

३. वायुसम मित्र  :- इस प्रकार की मित्रता की परिभाषा कर पाने में तनिक कठिनाई होती है क्योंकि 
ये अपने नाम के अनुरुप ही होते हैं,इनकी प्रमुख विशेषता तत्क्षण मित्रता का प्रदर्शन और तत्क्षण विलोपन है।
ये कब व्यक्ति के मित्र बन जाते हैं और कब अपनी मित्रता को विलोपित कर देते हैं आभास कर पाना कदाचित कठिन ही होगा।
इनका मुख्य ध्येय अभिष्ट साधना भर ही होता है।

वायुसम मित्र के होने से व्यक्ति को भीषण समस्याओं का सामना करने की अधिक संभावना

ऐसे मित्रों का आपके जीवन में नाम के अनुरुप ही प्रवेश आपको अति भीष्ण पीड़ा की अनुभूति करा सकती है क्योंकि कभी-कभी हम मित्रतावश अपने कुछ ऐसे रहस्योद्घाटन कर जाते हैं कि जो हमारे लिए कभी-कभी 
भीषण समस्याओं का सामना करने की अधिक संभावना बना जाती है।

४. विश्वासघाती मित्र :-इस प्रकार की मित्रता से हमें सदैव बचने का प्रयत्न करना चाहिए,यदि इनके लक्षण प्रकट हो जाएं तो।इनकी पहचान करना सरल नहीं,परन्तु अत्यन्त कठिन भी नहीं है क्योंकि इनके मुख्य लक्षणों में मुँह में राम बगल में छुरी वाली उक्ति चरितार्थ होती है।
 इनसे मिलने पर कभी भी यह प्रतीत नहीं होता कि ये हमारे हितेषी नहीं,अपितु इनकी विशेषता यही है कि ये सबसे बड़े हितेषी प्रतीत होते हैं और मन ही मन में हमें हानि पहुँचाने की योजना बनाते रहते हैं।
 संभवतः इसी प्रकार के मित्र के सान्निध्य के कारण ही   भारत माँ के अमर सपूत चन्द्रशेखर आज़ाद जी विषम परिस्थिति में पड़कर समय पूर्व ही भारत माँ की गोद में सो गए,अन्यथा इस सिंहसुत अमर बलिदानी के पार्थीव,पुण्य शरीर को भीरू शासन भला स्पर्शमात्र भी कर सकता था क्या !

५. अति उच्च आत्मविश्वास वाले मित्र :- इस प्रकार के       मित्र अपने नाम के अनुरुप ही अति उच्च आत्मविश्वास   वाले होते हैं।

इनकी प्रमुख विशेषता यह होती है कि वो किसी भी कीमत पर अपनी हार नहीं स्वीकारते,सच पूछें तो ये सत्य को झूठ और झूठ को सत्य बनाना अपनी योग्यता मानते हैं,ऐसे मित्र के सान्निध्य में व्यक्ति केवल हानि ही प्राप्त कर सकता है।

६. अति महत्वाकांक्षी मित्र :-इस प्रकार की मित्रता वाले व्यक्ति को सदैव हानि,भयंकर दुष्परिणामों का सामना करना होता है क्योंकि इस विशेषता वाले मित्र अपनी महत्वाकांक्षा को पूरित करने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं और अपने मित्र को विषम परिस्थिति में लाकर स्वयं भी सम्पूर्ण कुल के नाश का कारक भी बनते हैं।
 जब महाप्रतापी दानवीर कर्ण ने अर्जुन से युद्ध की इच्छा प्रकट की तो सम्पूर्ण सभा ने उन्हें सूत पुत्र कहकर सम्बोधित किया तब अपने कुटिल मामा शकुनि के चालवश दुर्योधन ने कर्ण को तत्क्षण एक राज्य देकर वहाँ का राजा घोषित करते हुए कर्ण को अपना मित्र अनुरोध प्रस्तुत कर दिया,जिसे दानवीर कर्ण ने आजीवन निभाया और अन्त में दुर्योधन की महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ गए।

भगवान श्रीकृष्ण-सुदामा -सच्ची मित्रता के परम साक्ष्य
भारतवंश सदैव ही प्रेरक भूमि रही है,जहाँ पर इस भाँति के सजीव इतिहास रचे गए हैं कि जो हमें सदैव गौरवान्वित करता है,उसी गौरवशाली इतिहास का जीवंत दर्शन है भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा जी की मित्रता।
 जहाँ श्रीकृष्ण-सुदामा ने सच्ची मित्रता के ऐसे 
परम साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं,जीवंत दर्शन कराया है कि हमें सोचने पर विवश कर जाती है कि सच्ची मित्रता क्या इस भाँति की होती है!
 भगवान श्रीकृष्ण-सुदामा की मित्रता का वो अमर प्रसंग हमें भावविह्वल कर जाता है कि जब सुदामा जी अपने जीर्ण-शीर्ण,अस्त-व्यस्त अवस्था लेकर द्वारिका नगरी पहुँचे तो भगवान श्रीकृष्ण ने उनके पाँव में चूभे कंटकों को स्वयं निकाल उनके पाँव को स्वयं के अश्रुजल से निर्मल कर दिया,जो संभवतः सुदामा जी की दीन-अवस्था देखकर अनायास ही प्रवाहित होते जा रहे थे।
क्या आज के परिवेश में ऐसी मित्रता का दर्शन संभव है,अवश्य बताएँ।

वर्तमान परिवेश में पाठ्यपुस्तक सच्चे मित्र

डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम "प्रक्षेपास्त्र मानव"भारत देश के ग्यारहवें राष्ट्रपति जी ने एक बार कहा था कि इधर- उधर भटकने से अच्छा यह हो कि हम अपने पुस्तकों,पाठ्यपुस्तकों का संपूर्ण व गहनतम अध्ययन कर उसमें समाहित ज्ञान को स्वयं में आत्मसात कर उनसे मित्रता कर लें क्योंकि इनमें समाहित ज्ञान हमें कभी भी विपथिथ नहीं होने देगी और सदैव विपथिथ होने पर हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी।
 अतएव पाठ्यपुस्तक रूपी सच्चे मित्र से मित्रता करना हमारे लिए अत्यंत ही लाभकारी है।

आइए मैंने भी अपने मित्रों के लिए कुछ मनोभाव व्यक्त किया है ,उससे आपकी भेंट कराऊँ जो कभी स्वतन्त्र मनोभावों के रूप में,तो कभी ग़ज़लों,शायरियों की कोशिशों या सनातनी छंदों के रूपों में प्रस्तुत हैं:-

दोस्त  होते  हैं 
जो कुछ खास होते हैं। 
 साथ होते हैं 
दिल के पास होते हैं।
कभी रुठते हैं 
मगर मना भी जाते हैं। 
याद आते हैं 
जब वो पास नहीं होते। 
 खुद लड़ते हैं
खुद ही मान जाते हैं। 
भूला देते हैं 
फिर खुद ही याद करते हैं। 
दोस्त होते हैं जो
 दिल के पास होते हैं।
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मित्र वही होता है अच्छा,तोड़े ना जो विश्वास।
बुरे समय जो हरदम रहता,दूर नहीं केवल पास।।

चोट अगर एक मित्र खाए,दूजे को मिलता दर्द।
 साथ ना जो कभी भी छोड़े,गर्म हवा हो या सर्द।।

भला मित्र का हरदम सोचे, बुराई नहीं भी स्वप्न।
सफल यदि जो मित्र ही होता,उसमें ही रहता मग्न।।

 श्रेष्ठ उदाहरण मित्रगणों का,युगों से सुदामा कृष्ण।
 लोभ मोह जिसको ना छूते,दिखे न जिसमें भी तृष्ण।।
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  खुद की जो नहीं सोचें,
  अश्रु आपके जो पोंछे,
  हित ही विचार करे,
  मित्र सच्चा है वही।
  
 मित्र तुझे कष्ट ना हो,
  सुखमय ही जीवन हो,
   मित्र ही सफल होवे,
   मित्र सच्चा है वही ।
  
काम धाम भी विश्राम,
  सोचे छोड़ आठों याम,
  हरदम यही सोचे,
   मीत अघोषित वो।

१.क्या साहित्य सर्वहितार्थ होना चाहिए ?
उत्तर-निस्सन्देह,साहित्य सर्वहितार्थ होना ही चाहिए।
साहित्य का आशय स-हित ही तो होता है।
इसमें जहाँ समाज के लिए उपयोगी दिशानिर्देश होता है,वहीं प्रत्येक उम्र के लिए पठनीय सामग्री होती है।
पर ध्येय यही कि इसमें एक अभिप्रेरणा हो।
२. छंदों में ताटंक छंद का क्या विशेष महत्व है ?
उत्तर-ताटंक छंद मंचों से पढ़ा जाने वाला एक ओजस्वी छंद है,जो मंच को बाँधे रखता है।
इस १६-१४ की यति वाले मात्रिक छंद के अंत में तीन गुरु अनिवार्य होते हैं तथा इसमें चार चरण या दो-दो चरण समतुकांतता का विधान है।
३.क्या दोहा छंद नवीन छंद साधकों के लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए?
उत्तर-यह सभी छंदों की रीढ़ है,गुरुजनों ने मार्गप्रशस्त करते हुए बताया है कि नवीन छंद साधकों को पूर्ण निष्ठा के साथ इस छंद का अभ्यास करना चाहिए।

४. दोहा छंद किस प्रकार का छंद है ?
उत्तर- विद्वतजनों के मार्गदर्शनानुसार यह एक अर्धसममात्रिक छंद है,सरलार्थों में कहा जाय तो यह वह छंद होता है जिसका पहला व तीसरा चरण तथा दूसरा व चौथा चरण समान होता है।

५.दोहा लेखन का प्रारम्भ कहाँ से हुआ?
उत्तर- संत तुलसीदास व कबीरदास द्वारा रचित पदों से प्रतीत होता है कि दोहा लेखन का श्रेय इन्हीं प्राचीन साहित्यकारों को जाता है।

६.दोहे छंद के विधान को लिखें ?
उत्तर-इस अर्धसम मात्रिक छंद के विषम चरण यानि पहले व तीसरे चरण में १३-११ की मात्रा पर तथा इसके सम चरण यानि दूसरे व चौथे चरण में ११-११ की मात्रा पर यति होती है।
७. दोहे के विषम चरणों का अन्त किस प्रकार करने से लय भंग नहीं होती ?
उत्तर- दोहे के विषम चरणों का अन्त लघु गुरु या(१ २) से होने से लय भंग नहीं होता है

८. मनहरण घनाक्षरी छंद का विधान लिखें ?
उत्तर-यह एक वर्णिक छंद है जिसका विधान ८,८,८,७ वर्णों पर यति के साथ चरणांत लघु गुरु अनिवार्य है।
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टिप्पणियाँ

  1. उत्तर
    1. हृदय तल से आभार सम्मानीय,
      सभी प्रकार के मित्रों का वर्गीकरण इसी कारणवश ही तो किया है।

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