गौण क्यों मनुजता-मनुजता क्यों विलोपित हुई ???
प्रश्न जब यह समक्ष होता है गौण क्यों मनुजता ???
तब उत्तर की खोज हमें इस निर्णय पर पहुँचा देता है कि संभवतः आज समाज एक बिखराव की स्थिति में है,
हम सभी धर्म-जाति,रंग के आधार पर टुकड़ों में विभाजित हैं !
मनुजता क्यों विलोपित हुई ???
बाल्यावस्था से ही हमने यह सुना है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।वह समाज में रहकर उसके सुख-दुख को मिलकर बाँटता है, कुछ सीमा तक यह सत्य भी थी।यंत्रवत हुआ मानव
आपसी सौहार्द को लीलती आधुनिकता
आज से कुछ साल पहले जब हमारा विकास नहीं हुआ था,लाख कमियों के बावजूद भी जि़न्दगी हँसती-खेलती थी। समाज में दुर्भावना लेषमात्र ही दृष्टिगोचर होती थी,लोग आपस में मिलते-बैठते थे और अपने सुख व दुख का आदान-प्रदान किया करते थे।
किसी के यहाँ कोई भी समस्या होती थी,सम्पूर्ण जन समुदाय उसके निवारण के लिए अग्रसर रहा करता था,स्व नहीं सर्व पर विचार होता था। उन दिनों आज की आधुनिक सुख-सुविधाएँ टीवी०,फोन इत्यादि जैसे उपलब्ध नहीं होते थे,पर फिर भी हम सुखी थे।
आज आधुनिक सुख-सुविधाओं से जब हम सम्पन्न हैं,तो भी आज हम सन्तुष्ट नहीं।मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है।कल जो आपस में मिलकर समस्याओं का हल ढूँढा करते थे,वो आज इसका हल निकालने में व्यस्त हो चुके हैं कि अन्य किस प्रकार विकसित हो गए और हम किस भाँति पिछड़ते गए।
सत्य कहा जाय तो आज इस आधुनिक व विकासशील समाज ने आपसी सौहार्द को लीलना प्रारम्भ कर दिया है।
मनुजता का गौण होना एक भयावह परिस्थिति
अहंवादी इस युग में मानव परमार्थ के मार्ग से भ्रष्ट हो एक अलगाव की ओर अग्रसर हो चुका है।
आज आदमी का शत्रु आदमी है चरितार्थ होता सा प्रतीत होता है।
मानवीय मूल्यों का अभाव,नैतिकता का ह्रास,पाप की पृष्ठभूमि बनी यह धरा अपने उद्धार के उपाय तलाश रही है।
प्राचीनतम कर्मप्रधान है ,कि हमारी विचारधारा का लोप हो चुका है।आज हम भाव शून्य हो चुके हैं।
जिस भी तरह हो हमारा अभीष्ट सिद्ध हो इसी परिकल्पना में हम आज जी रहे हैं,इसी को दर्शाने का प्रयत्न मैंने अपने इस सृजन में किया है।
मानव की परिभाषा
रंग-रंग में बँटे मतभेद के कारक मानव
- सर्वधर्म समभाव की भावना को सर्वोपरि नहीं मानने वाला-इस रंग का मानव सभी धर्मों को समान दृष्टिकोण से नहीं देखता है,जो विभेद का एक महत्वपूर्ण कारक है।
- प्राणियों में ईश्वर के रूप का दर्शन न करने वाला
- अहंवाद का समर्थक- इस सिद्धांत का समर्थन करने वाला मानव स्वयं से श्रेष्ठ अन्य को स्वीकारता ही नहीं,उसके अनुसार उसने जो कह दिया,वही उत्तम और इसका खण्डन करने वाला उसका घोर शत्रु है,इसी अहंवाद से संसार में ईर्ष्या का जन्म होता है।
- पूर्वाग्रह से पीड़ित मानव-इस प्रकार के मानव को लगता है कि उससे अधिक श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता और यदि किसी ने उससे अधिक श्रेष्ठता उसके समक्ष दर्शाई ,तो इस प्रकार का मानव उस श्रेष्ठता दर्शाने वाले प्राणी को अपना शत्रु मानने लगता है,इस प्रकार इस मानव के कारण समाज मतभेद की व्यवस्था पुनः जन्म ले लेती है।
२२मात्रिक छंद--१२,१० मात्रा पर यति,
यति से पूर्व व पश्चात त्रिकल अनिवार्य,
चरणांत में गुरु (२)
दो दो चरण समतुकांत हो।
चार चरण का एक छंद कहलाता है।
आज विषय बना यही,गौण क्यों मनुजता।
प्रमुख पाप हुआ यहाँ,नष्ट हुई शुचिता।।
रंग-भेद, धर्म-भेद,न हि है समरसता।
सद्भाव का लोप है,छाई नृशंसता।।
रिपु दल हैं बढ़े हुए,खो गयी मित्रता।
द्वेष मेघ घिरे यहाँ,ना दिखे भद्रता।।
कर्म विहीन सब हुए,रही नहीं निष्ठा।
अभीष्ट को करें सफल,बचा कर प्रतिष्ठा।।
सीखें कुछ नहीं ललक,कर रहे मूढ़ता।
मंथन आत्म का करें,धरे हुए दृढ़ता।।
जो पथ से हुआ विलग,लक्ष्य से दूर है।
रण में जो डटे सदा,वही तो शूर है।।
ध्येय कर्म रहे सुनो,हार या जीत हो।
प्रीत सदा प्रसार हो,यही जग रीत हो।।
श्रम सभी करे यहाँ,त्याग आलस्य हो।
प्रयत्न यज्ञ धर्म हो,अंत अब दास्य हो।।
भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏
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