"नहीं पुनर्विचार हो : कर्म-धर्म श्रेष्ठ हो"

 पुनर्विचार नहीं,कर्म करें

लक्ष्य प्राप्ति के लिए कर्म करना ही आवश्यक है, उस पर पुनर्विचार नहीं। कर्म-धर्म को ही जब श्रेष्ठ माना जाए तो सफलता की प्राप्ति होती है। लक्ष्य की सफलता-असफलता कर्म की श्रेष्ठता पर ही निर्भर है। व्यर्थ चिंतन से उत्तम, अपने लक्ष्य का सार्थक विश्लेषण है। आज की युवा पीढ़ी भाग्यवादी होने के कारण अपने लक्ष्य से भटक जा रही है। उनके भाग्यवादी होने के खण्डन करने के लिए उन्हें समझाते हुए कि अभीष्ट की प्राप्ति किये गये श्रम के आधार पर न होती है, न कि भाग्य अनुसार, मैंने यह छंदयुक्त लेख लिखने का प्रयत्न किया है।
Nahin punarvichar ho :karma-dharma shrestha ho



एकाग्रता का अभाव: लक्ष्य प्राप्ति में बाधक

अभीष्ट की प्राप्ति करने के लिए मन का एकाग्र होना 
अति आवश्यक है।मन की चंचलता हमारे अभीष्ट प्राप्ति 
में बाधक सिद्ध हो सकती है। आज की युवा पीढ़ी में एकाग्रता के अभाव का एकमात्र कारण भौतिक सुविधाओं व आनंद प्राप्ति के विकल्पों की बहुलता है।
वह अपने लक्ष्य पर केंद्रित होकर प्रयत्न तो अवश्य करता है,परन्तु इन भौतिक सुविधाओं के कारण विपथित हो जाता है।

एकाग्रचित होना अभीष्ट प्राप्ति में सहायक 

व्यक्ति जब तक एकाग्र न हो,वह कुछ सीखने-सिखाने में सक्षम नहीं हो सकता,बिना कुछ सीखे-सिखाए अभीष्ट प्राप्ति के लिए किसी में योग्यता भी विकसित नहीं कर सकती क्योंकि व्यक्ति में समुचित ज्ञान का विकास भी 
पूर्ण एकाग्रता के साथ मनन,चिंतन व विश्लेषण  के बाद होता है।

भौतिक सुविधाएं युवा पीढ़ी के लक्ष्य प्राप्ति में बाधक


भौतिक सुविधाएं मन को एकाग्र नहीं रहने देती,जिससे व्यक्ति में भटकाव की स्थिति उत्पन्न होती है।
स्वर्ण सम तपने वाला मानव ही पूर्णता के साथ अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है क्योंकि यहाँ बिना तपे अनुभव प्राप्त नहीं होता और अनुभव विहीन प्राणी 
का कोई मोल नहीं होता।
आधुनिक युवा पीढ़ी के भौतिक सुविधाओं के बीच पलने-बढ़ने के कारण वह कठोर परिश्रम कर अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करना चाहता,
जिससे उसके लक्ष्य प्राप्ति में संदेह ही रहता है।

भटके हुओं को राह पर लाना :बौद्धिक व तार्किक चिंतन का विकास कर

भौतिकवादी युवा पीढ़ी जीवन में सदैव सुख व आनंद की अनुभूति करने व सरलता से सब कुछ प्राप्त हो जाने के कारण स्वयं में बौद्धिक व तार्किक चिंतन विकसित करने का प्रयास तक न करती है,उनमें एकाग्रता का भी अभाव दिखता है।उन्हें एकाग्रचित करने के लिए निम्नलिखित बिन्दु सहायक सिद्ध हो सकते हैं :
  • ध्यान व आसन प्राणायाम इत्यादि द्वारा।
  • रुचि के चीजों को करते रहना इत्यादि।
  • मनसा चिंतन करके भी व्यक्ति एकाग्रचित हो सकता है क्योंकि मौन साधना भी एकाग्रता को बढ़ाता है।
  • त्राटक विद्या के द्वारा-इसमें किसी भी वस्तु के अग्र भाग या अपने नासिकाग्र पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है,ऐसा योगाचार्यों का मानना है। 

    लघु मार्ग का चयन :श्रम से दूरी

सफलता प्राप्ति की तीव्रतर इच्छा

आज की युवा पीढ़ी श्रम से दूरी करती जा रही है। उनके अनुसार शीघ्र ही बिना किसी श्रम के लक्ष्य की प्राप्ति होनी चाहिए। शीघ्रातिशीघ्र सफलता की चाह उन्हें लघु मार्ग का चयन कर लक्ष्य प्राप्ति को उकसाती है जिससे वह लक्ष्य तक किसी तरह पहुँच तो जाते हैं, परन्तु उनमें व्यावहारिक ज्ञान का अभाव हो जाता है।

संघर्ष पथ पर अग्रसर :-सफलता चूमें कदम

लघु मार्ग द्वारा प्राप्त किये गये सफलता की आयु क्षणिक होती है क्योंकि सफल होने वाले लोगों की यदि सूची निकाली जाए तो उन सभी में यह बात सामान्य होगी कि उन्होंने अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भरपूर संघर्ष किया है।
उदाहरण के लिए-
  •  हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ०राजेन्द्र प्रसाद उफ़नती नदी को पार कर पढ़ने जाते थे।
  • ईश्वरचंद्र विद्यासागर लैंप पोस्ट के नीचे बैठकर पढ़ते थे।
  • मिशाइल मैन अब्दुल कलाम जी अपने गांँव के स्कूल में बहुत ही कठिनाई से उतार चढ़ाव पार कर पढ़ने जाया करते थे।
  • महाराणा प्रताप ने अपनी धरती को आज़ाद कराने के लिए घास तक की रोटी खाई थी।
  • अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन पैसे के अभाव में माँग-माँग कर पुस्तकों का अध्ययन करते थे।
 सारांश में उपरोक्त बिन्दु यह स्पष्ट करते हैं कि बिना संघर्ष किये सफलता प्राप्त नहीं किया जा सकता।

अटल निश्चय : लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण

लक्ष्य के प्रति पूर्ण निष्ठा

उचित रणनीति के साथ श्रम,लक्ष्य के प्रति अटल निश्चय तथा लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण सफलता प्राप्ति के लिए अति आवश्यक है।

कुछ प्रेरक बिन्दु महापुरुषों के जीवन से

  • बालक ध्रुव के पिता ने उसके विमाता के मना करने के  कारण उन्हें जब अपनी गोद में ना बिठाया,तो उन्होंने भगवान विष्णु की आराधना कर उनके गोद में बैठने का अधिकार प्राप्त कर लिया।
  • भारत माँ की आज़ादी के लिए अनेकों वीर फाँसी पर झूल गए।
  •  वरदराज ने अपनी हथेली में विद्या रेखा न रहने की बात जानने पर धारदार हथियार से विद्या रेखा बनाना यह सिद्ध करता है कि अभीष्ट प्राप्ति की चाह रखने वाले को उसकी प्राप्ति के लिए यथासंभव प्रयत्न करना चाहिए।
  • दशरथ माँझी ने जो पहाड़ी क्षेत्र मे रहते थे,जब पहाड़ों से होकर आने-जाने वाले को कठिनाई होते देखा,तो उन्होंने पहाड़ों को काटकर वहाँ रास्ता बना दिया।
  • एडमंड और तेनजिंग नोर्गे शेरपा की एवरेस्ट विजय के दृढ़ निश्चय की कहानी हमें यह प्रेरणा देती है कि लक्ष्य कठिन हो या सरल सकारात्मक प्रयत्न से प्राप्त करना संभव है।
  • एकलव्य के गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उन्हें ही गुरु मानकर तीरंदाजी के अभ्यास से यह प्रेरणा मिलती है कि लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ केंद्रित होकर ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

आत्मप्रबलता

लक्ष्य प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम के साथ-साथ आत्मप्रबलता का होना अनिवार्य है क्योंकि स्व-अविश्वासी मनुष्य स्वयं तो लक्ष्य प्राप्त नही़ं कर पाता,अन्यों को भी करने नहीं देता।
 आत्मप्रबलता के लिए स्वयं पर यह विश्वास करना होगा कि अमुक कार्य केवल मैं ही कर सकता हूँ।

प्रबल प्रयास आवश्यक अकाट्य रणनीति के साथ

सार्थक रणनीति

किसी भी कार्य की शुरुआत करने के लिए उसके लिए एक सार्थक रणनीति बना लेना अति आवश्यक है, योजनाशून्य कार्य कभी सफल नहीं हो पाता।

धैर्यवान बन प्रयत्न करना

इस प्रयास को सही आयाम देने के लिए धैर्य धारण कर अभीष्ट प्राप्ति की चिंता किये बिना प्रयत्न करना अनिवार्य है।

समय की महत्ता को बताना

समय अति मूल्यवान है,इसलिए समय को नष्ट करने वाला व्यक्ति स्वयं का नाश करता है ऐसा माना जाता है।
 कोई भी कार्य ससमय ही करना चाहिए क्योंकि वर्षा ऋतु के बाद खेत की जुताई से क्या लाभ!जिसने समय की अवेलहना की,समय ने उसे भी छोड़ दिया।
 आज की युवा पीढ़ी और हम सभी को यह समझने की
 आवश्यकता है कि समय को व्यर्थ करना कभी भी उचित नहीं माना जा सकता।

कटुता मिटा प्रेमालिंगन :शत्रुता विलोपन

आत्मशुद्धि मन पवित्र रखने के लिए

व्यक्ति के सफल होने के लिए मन के मैल यानी कटुता, शत्रुता को मिटा प्रेमालिंगन करना आवश्यक है।

संबंधों में मधुरता

एक सफल व्यक्ति के पीछे उसके संबंधों का भी अति महत्व है। व्यक्ति के संबंध जितने अच्छे होंगे,उतना अधिक ही वह सफलता प्राप्ति के लिए लक्ष्य पर केन्द्रित रहकर अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन कर पाएगा।
 लक्ष्य प्राप्ति के लिए मन की प्रसन्नता भी अति आवश्यक कारक है।
 विद्वत समाज ने भी संबंधों में मधुरता तत्व को महत्व देते हुए अपने काव्यों,कथाओं के माध्यम से उत्कृष्ट उदाहरण रखे हैं।

व्यावसियक सफलता वैरभाव के नाश से


ऐसा देखा भी गया है कि एक व्यापारी सफल तभी होता है जब वह अपने ग्राहकों,मजदूरों इत्यादि से प्रिय बोलता है और आवश्यकता पर उनकी यथासंभव सहायता भी किया करता है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह सभी को प्रेम से गले लगाता है।

स्व पर विश्वास होना अति आवश्यक

व्यक्ति तब तक सफल नहीं हो सकता जबतक उसे स्व यानि खुद पर विश्वास ना हो।जिस प्रकार एक विमान चालक को अपने विमान चालन क्षमता पर जब विश्वास ना हो,तो उसे विमान उड़ाना नहीं चाहिए,समुद्र में गोता लगाने वालों को अपने गोताखोरी पर जब विश्वास ना हो,तो उसे गोता लगाना छोड़ देना चाहिए।
स्व-विश्वास अर्थात आत्मविश्वास के बल पर ही दुर्गम से दुर्गम कार्य को किया जा सकता है।
  अतएव युवा पीढ़ी को अपने लक्ष्य पूर्ति पर जब तक सन्देह होगा,वह अपने लक्ष्य को पूर्ण नहीं कर सकता।

अल्पज्ञान : सफलता में असंभावना
लक्ष्य प्राप्ति की चाह तो सबमें होती है,परन्तु उसके अनुरुप कार्य करना भी आवश्यक है।आज की युवापीढ़ी में संबंधित लक्ष्य से संबंधित ज्ञान का अभाव दिखता है,यदि लक्ष्य प्राप्ति की उनमें चाह है तो उनके ज्ञान को उन्हें और विकसित करना होगा।

निष्कर्ष

इन काव्य पंक्तियों से विषम परिस्थितियों में भी धैर्य धरकर एक सकारात्मक दिशा में ईमानदार प्रयास करने की प्रेरणा मिल सके, ऐसा यहाँ प्रयास किया गया है। व्यक्ति की सफलता के पीछे उसकी स्वयं में आस्था, उसके आत्मविश्वास का योगदान रहता है।

अन्त में चामर छंद विधान में मेरा एक तुच्छ प्रयत्न सादर समर्पित है:-
चामर छंद विधान:- २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २=कुल २३ वर्ण ,यह एक वार्णिक छंद है।

लक्ष्य रक्ष्य आज हो नहीं पुनर्विचार हो।

कर्म मर्म जानिए यही सदा विचार हो।।

सोंच ना कभी यहाँ प्रयत्न तुम अभी करो।

सत्य मार्ग पर चलो नहीं कभी यहाँ डरो।।

पीर धीर बन सुनो न वैर भाव तुम रखो।।

श्रम धर्म मानिए नहीं कभी अजी थको।।

भारत भूषण पाठक"देवांश"

भावार्थ :-लोग लक्ष्य तो बना लेते हैं,पर उसका रक्षण किस प्रकार करना है अर्थात उसके अनुरुप स्वयं को तैयार कैसे करना है ,ये नहीं विचारते हैं और न ही अपने द्वारा पूर्व में हुए भूल का पुनर्विचार करते हैं।

"श्रीरामचरित्रमानस" में तुलसीदास जी ने भी कर्म की महत्ता बताते हुए लिखा है अर्थात कर्म को धर्म मानकर करना ही उत्तम है।अभीष्ट प्राप्ति होगी कि नहीं यह विचारने से पहले अनुरुप प्रयत्न पूर्ण मन के साथ करना ही उत्तम है।

    सत्य कुछ समय के लिए अस्त हो सकता है,परन्तु     परास्त नहीं। व्यक्ति को इसलिए सत्यमार्ग अर्थात सन्मार्ग पर चलने से डरना नहीं चाहिए।

  सभी की पीड़ाओं व वेदनाओं को ध्यान से समझकर उनके निवारणार्थ कदम उठाना ही मानव की सेवा है।

  परिश्रम ,मेहनत परम धर्म जानकर इसकी अवेलहना नहीं करनी चाहिए।

In english :-Before getting stuck towards your goal,there is a need of analyse your previous mistakes.

 Sant Tulsidas has also told the importance of the karama in his Ramacharitramanas.

 Well, it is defined that karma should be done as considering it dharma.

What will be the results is not importance,importance is of your dedicated works.

A truth can be hidden for few minutes but never defeated.

Therfore it is adviced to go on the path of truth,total reality.

 For understanding,realising the pain of others is the human duty.

Consider labour,hard work as a true religion, never refuses it.

कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न

१. पंचचामर छंद की परिभाषा तथा विधान बताएं ?

उत्तर- पंचचामर छंद एक वार्णिक छंद है, जिसमें कुल १६ वर्ण होते हैं। इस छंद का विधान लघु गुरु संयोजन×८=१६

वर्ण तथा मापनी इस प्रकार हैं:-

१२ १२ १२ १२ १२ १२ १२ १२

२.डमरू घनाक्षरी छंद की परिभाषा तथा विधान बताएं ?

उत्तर-यह भी एक वार्णिक छंद है जिसमें कुल ३२ वर्ण होते हैं।

डमरू की निनाद डमक डम ,डमक डम की भांति श्रुति में प्रतीत होने वाला यह छंद कवियों द्वारा अति पसंद किया जाता है।

चार पदों वाले इस छंद की मापनी इस प्रकार हैं

८-८-८-८ वर्ण प्रति चरण तुकांत तथा सभी वर्ण लघु होंगे।

३.चुलियाला छंद की परिभाषा तथा विधान बताएं ?

उत्तर- इस मात्रिक छंद में दोहे के विषम चरणों को यथावत(१३ मात्रा) रखकर सम चरणों के पदांत यानि (११ मात्रा) के बाद १२११ जोड़कर लिखा जाता है।

४.छंद विज्ञों के अनुसार चुलियाला छंद का एक और क्या नाम है तथा इसके कितने प्रकार प्रसिद्ध हैं :-

 उत्तर-छंद विज्ञों के अनुसार चुलियाला छंद का एक और नाम चूड़ामणि छंद है तथा विद्वानों के अनुसार इसके आठ प्रकार प्रसिद्ध है,जो दोहे के विषम चरणों के ११ मात्रा के बाद आने वाले पचकल मात्राओं में कुछ बदलाव से निर्मित होते हैं।

५. ताण्डव छंद की विधान तथा परिभाषा बताएं ?

उत्तर-यह एक आदित्य जाति का छंद है,जिसमें चार चरण तथा दो-दो या चारों चरण समतुकांत होने के साथ-साथ पदांत १२१ तथा आरंभ लघु मात्रा से अनिवार्य होता है।

६. आदित्य जाति के छंद से क्या आशय है ?

उत्तर- आदित्य जाति के छंद से आशय ऐसे छंदों से है जिसकी मात्राभार १२ मात्रा प्रतिपद होती है।

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#सुमेरू छंद#तांडव छंद#चुलियाला छंद#चौपाई#डमरू घनाक्षरी









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