जग का मूल:-विश्व की आधारशिला(jag ka mool)

 इस जग के मूल में ,इसके निर्माण में एकमात्र जो शक्तिशाली संतुलन शक्ति काम करती है उसे संसार प्रीत के नाम से जानता है। प्रीत जिसकी इस सृष्टि में व्याप्तता के कारण ही यह संसार मनोहारी लगता है।

Rangamanch hai ye duniya:-ek abhinaymanch bdi hai

जग का मूल :- विश्व की आधारशिला  (jag ka mool)

इस प्रीत की महिमा बताते हुए गुणवान व्यक्तियों ने यह बताया है कि इस संसार में प्रीत,  प्रेम ही एक ऐसा तत्व है जिसके कारण संसार की कठिन से कठिन परिस्थिति से बाहर आया जा सकता है।
 गुणीश्रेष्ठों का यह भी मानना है कि इस संसार में भूख जितनी कष्टकारी नहीं है, उतनी पीड़ादायक,  कष्टकारी आपके प्रति किसी की वैर भावना होती है।

Jaga ka mool:-visva ki aadharshila

Jaga ka mool :-visva ki aadharshila


जीव की इच्छाओं ने किया पाश्विकता का विकास

जीव अपने सृष्टि के फलस्वरूप अत्यन्त संतुष्ट था,  उसे अभाव में भी आनन्द की अनुभूति हो रही थी।
 इसका मूल कारण था उसकी इच्छाओं की  उत्पत्ति।
  प्रारम्भ में जीव अपने लिए अनिवार्य तत्वों से परिचित नहीं था,  इस कारण उसे इच्छाओं,  अभिलाषाओं जैसे मानसिक अनिवार्यताओं का ज्ञान नहीं था।

  इन्हीं अज्ञानता के कारण ही उसमें अबतक मनुष्यता व्याप्त थी और समग्र सृष्टि भी आनंदित थी।
 
इन भौतिक व कायिक इच्छाओं की अज्ञानता के कारण व अभी मनुष्यता, प्राणित्व की मर्यादा के सीमा से परे नहीं गया था।
 समय चक्र के गतिमान होने के साथ ही समस्त चराचर के जीव में विभिन्न अनिवार्य व वैकल्पिक इच्छाओं की उत्पत्ति हो गयी,   यथा :-भूख, प्यास,  मोह,  आशक्ति इत्यादि ।
   इन इच्छाओं ने इनकी प्राप्ति प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति में करने की व्याकुलता ने उसमें मंदतम गति से पाश्विकता का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया।

 सुख की परिभाषा सद्भावना का विस्तार

इस संसार के समृद्ध व निवास करने हेतु बनने में जो अति महत्वपूर्ण कारक है,  वह है सद्भावना क्योंकि इस संसार में प्रचलित इतिहास नामक तत्व के दर्शन के अनुसार किसी भी राष्ट्र के शक्तिशाली होने के पीछे मूलभूत कारण उस राष्ट्र में सद्भावना को प्रमुखता देना था और उसके दुर्बल होने के पीछे सद्भावना का लोप होना ही मूल कारक था।

सृष्टि निर्माण का मूल कारक प्रीत

इस प्रीत नामक तत्व की व्याख्या, प्रशंसा करते हुए, महिमामंडन करते हुए अनगिनत ग्रंथ, कथाएं, श्लोक, उपन्यास इत्यादि लिखे गए हैं, आज जीवजगत विशेषकर मनुष्य जाति इससे अत्यन्त प्रवाहित है।
उसने इस प्रीत, प्रेम के महिमामंडन के लिए विभिन्न प्रकार के जो साहित्यिक तत्वों की रचना की है, उन सभी के आधार पर इस प्रीत की जो सारगर्भित परिभाषा रखी है वह इस प्रकार है :-


प्रीत अर्थात वह तत्व जिसने इस सृष्टि के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
वह केवल सामान्य विषयवस्तु नहीं है अपितु इसका क्षेत्र व्यापक है।
जहाँ माँ की आँचल का यह अपार आनन्द है, वही भाई-बहन के लिए अत्यन्त मधुरिम बंधन।
मित्रों के लिए प्रीत विश्वास की अकट्य सूत्र है, तो प्रियतमा के रूप में हृदयपुष्प को प्रमुदित करने का कारक।

सुविधाओं का आगमन व वैरभाव का विकास

सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी ने जब सृजन कार्य प्रारम्भ किया तो सर्वप्रथम उसने पृथ्वी पर जीव का विस्तार किया और उन्हें जीवनावश्यक अनिवार्य तत्व भी प्रदान कर दिया।

प्रारम्भ के कई वर्ष उन जीवों ने शांतिपूर्वक ही व्यतीत किया पर उस काल में उनके पास सुविधाओं का,आराम के वस्तुओं का अभाव था।  इस अभाव में भी वे आनन्द की अनुभूति कर रहे थे। 

तत्पश्चात उनके जीवन में सुविधाओं का आगमन हुआ जिसके पश्चात विलासिता में डूबा वह जीव अपने से कम सुविधा वाले जीव अथवा अभावग्रस्त जीव से ईर्ष्या करने लगा,  इसी ईर्ष्या व द्वेष की भावना के प्रतिफलस्वरूप समष्ट सृष्टि में वैरभाव,  अविश्वास इत्यादि का विस्तार हो गया।
 
Jaga ka mool :-visva ki aadharshila


वैरभाव,  अविश्वास ने सृष्टि में पाश्विकता का किया विस्तार

शांति उपासक,  सबसे मिल-जुलकर रहने वाला अब यह निर्मल हृदय रखने वाला जीव अब कलुषित हो चुका था।
  
इस वैरभाव,  अविश्वास ने सबसे प्रेम,  सद्भाव रखने वाले इस सामान्य जीव को पशुवत बना दिया था।
 पुरातन काल में जो जीव एक-दूसरे की,  इस समस्त चराचर की कुशलता चाहता था।   
वह अब इस समस्त चराचर का रक्तपिपासु बना दिया था।
 
इस रक्त की उसकी असीम पिपासा ने सृष्टि की हरीतिमा को समाप्त कर उसमें उपस्थित समस्त प्राणघटकों में रक्त का विस्तार कर दिया था।
 
सरलार्थों में अब हरीतिमा का उपासक जीव अब रक्त पिपासु बन चुका था।


निष्कर्ष :-प्रस्तुत विषयवस्तु इस विश्व की उत्पत्ति,इसके मूल व इसके निर्माण की स्थिति-परिस्थिति पर प्रकाश डालने के प्रयत्न फलस्वरूप आप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
सारांशतः इसमें मेरे द्वारा सृष्टि निर्माण व तत्पश्चात अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति की स्थिति-परिस्थिति पर प्रकाश डालने के लिए इसमें निम्नलिखित बिन्दुओं का समावेश किया गया है, आशा है आप पाठकों को अवश्यमेव पसन्द आएगी,  यदि पसन्द आए तो आपकी पुनीत प्रतिक्रियाओं की प्रतिक्षा रहेगी।
विषयवस्तु पर प्रकाश डालने के लिए  काव्यमय सृजन भी आप सभी की अदालत में प्रस्तुत है जो चौपाई छंद में इसके विधान सहित प्रस्तुत है।

विधान-१६-१६ मात्रा पर यति चरणांत गुरु-गुरु अनिवार्य अथवा ११११ यानि चार लघु के द्वारा भी किया जा सकता है।

विशेष-कल-संयोजन ध्यान अनिवार्यतम🙏🌹🙏

जग का मूल प्रीत है भाई।

  फसल प्रीत की करें उगाई।।

   नेह सभी से सदा लगाएं।

  वैर भाव ना कभी जगाएं।।

  मानव में हो मानव दर्शन।

  पापकर्म का अब हो कर्षण।।

  मिट्टी की ही जब है काया।

  फिर काहे का इससे माया।।

  नहीं अहं होता है अच्छा।

  करें भलाई रखनी इच्छा।।

  मूल नाश का हरदम गुस्सा।

  अन्त करे यह जानो किस्सा।।

  भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏

१.क्या छंदबद्ध रचनाएं अधिक पठनीय होती हैं?

उत्तर-छंदबद्ध रचनाएं काव्य में प्राण फूंक देती हैं।

इससे काव्य में गेयता आ जाती है।


२.क्या छंद को सीखने में कठिनाई आती है?

उत्तर-छंद एक साधना है।किसी भी साधना में समय तो लगता ही है और साधना जब सरल हो तो साधना क्या !


३.छंद को सीखने में सुगमता कब होती है?

 उत्तर-जब छंद के विधान व मात्राभार से आप परिचित हो जाते हैं तो इसे सीखने में सुगमता होती है।

४. क्या प्राचीनतम छंद फिल्मी गानों में प्रयोग किए गए हैं?

 उत्तर-जी प्रत्येक छंदों का प्रयोग किसी ना किसी गाने में हुआ है,उदाहरणार्थ-मुहब्बत एक तिजारत बन गयी है सुमेरु छंद पर आधारित है।

साथ ही श्रीराम चंद्र कृपालु भजु मन भजन उडियाना छंद में है।

५ .क्या वार्णिक छंद व मात्रिक छंद में कुछ भिन्नता है?

उत्तर-बिल्कुल कुछ छंद वर्णों यानि अक्षरों पर आधारित हैं तो कुछ मात्राओं के आधार पर लिखे जाते हैं।


६ .वार्णिक व मात्रिक छंदों के कुछ उदाहरण रखें?

उत्तर-माता शब्द में दो वर्ण हैं तथा मात्राएं चार हैं।

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