भाव प्रवाहिका हिन्दी-मानव बनाती हिन्दी
हिन्दी एक ऐसी भाषा है जो भाव प्रवाहन का कार्य करती है,सच ही तो है हिन्दी उस भाव की प्रवाहिका है,जो हमारे मनोभाव समझकर भाव का प्रवाह करती है।
समग्र विश्व का गुरु भारत प्रारम्भ से ही विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाता आ रहा है और इस शिव संकल्प को पूरा करने में प्रथम देववाणी संस्कृत ने योगदान दिया,तत्पश्चात इसकी पुत्री हिन्दी न भी इसी मार्ग का अनुसरण कर इस शिव-संकल्प को पूरा करने में अपना योगदान सुनिश्चित किया है।
पुरातन भारत में संस्कृत वह भाषा थी जो समस्त विश्व से स्नेह करती थी,समस्त मानव जाति द्वारा व्यवहृत होती थी और बड़ों छोटों,उच्च-मध्यम,निम्न-कुलीन सभी वर्गों द्वारा हृदय से अंगीकार की जाती थी।
संस्कृत-सुता हिन्दी भी अपनी माता के पदचिह्नों पर ही भारत को वसुधैव कुटुम्बकम की प्रेरणा देकर इसे विश्व के साथ मैत्री संबंध स्थापित करने के लिए कहती है।
हिन्दी की मृदुभाषिता व इसकी विशेषताएँ :-विश्व के अन्य भाषाओं की अपेक्षा संस्कृत के पश्चात इसकी सुता हिन्दी को अत्यधिक आदर व सम्मान मिलता है,इसका मूल कारण है इसकी मृदुभाषिता अर्थात इसके शब्दावली,शब्दमालिका में समाहित वे शब्दविशेष जिससे आत्मीयता की अनुभूति होती है।
इसमें उपलब्ध व अन्य भाषाओं से इसके द्वारा अंगीकार किये गए वृहत शब्दवालियों की सूची इसके मृदुभाषिता का,इसके घुलने-मिलने वाली होने को पूर्णतः चरितार्थ करती है,स्पष्ट करती है।
इसकी मृदुभाषिता ही इसकी विशेषता है,तभी तो इसके प्रयोगकर्ता में वैर,ईर्ष्या,द्वेष जैसे नकारात्मक भावों का दर्शन अन्य भाषाओं की अपेक्षा कम होता है।
हिन्दी केवल एक भाषा ही नहीं अपितु सम्पूर्ण संस्कार है,वह संस्कार जिनसे मानवीय गुण दर्शित होते हैं अर्थात मानव को मानव बनाये जाने वाले गुण।
हिन्दी की वह वर्णमाला जिसने हमें ज्ञानी बनाया :-हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो प्रारम्भ से ही संस्कारों को विकसित करने की विचारधारा प्रस्तुत करती है और यह स्पष्ट भी है कि 'क' से कमल बनाकर खिलाकर या 'क' से कलम हाथ में देकर यह हमारे आत्मबल को प्रबल करके 'ज्ञ' से हमें इस प्रकार का ज्ञानी बना देती है जो अपने ज्ञानकोष के सामर्थय से समस्त वसुंधरा के अज्ञान को मिटाकर समग्र सृष्टि में ज्ञान रश्मियों का वितरण कर इसे असंख्य ज्ञान पुष्पों से सुवासित कर रहे हैं।
हिन्दी भाषा का उद्गम व इसके समक्ष प्रस्तुत कठिनाइयाँ
जब देववाणी संस्कृत से हिन्दी भाषा का उद्गम हुआ तो इसके समक्ष विभिन्न प्रकार की कठिनाइयाँ प्रस्तुत हुई,जिनमें से प्रमुख कठिनाईयाँ निम्नलिखित थीं :-
(i) परिनिष्ठित व अपभ्रंश भाषा के मध्य मतभेद :-
अपभ्रंश भाषा वह भाषा जो प्राचीन काल में आम जनमानस की भाषा होती थी,जिसे आम जनमानस अपने उच्चारण की सुविधानुरूप प्रयोग किया करता था,परन्तु भाषाई विकास के साथ-साथ वैयाकरणों को भाषा का यह रूप उचित प्रतीत नहीं हुआ और उन्होंने उस भाषा को स्वीकारने की माँग कर दी जो व्याकरण के नियमों से बँधे हुए हों, इस प्रकार के ही भाषा को वैयाकरणों ने परिनिष्ठित भाषा की संज्ञा दी। इस प्रकार की भाषा का प्रयोग उचित ही थी मगर आम जनमानस ने इसका विरोध करना प्रारम्भ इसकी क्लिष्टता के कारण कर दिया।
(ii) भावों की अभिव्यक्ति,उसके समुचित प्रवाहण के लिए हिन्दी भाषा के तीन रूपों में से दो रूप ही स्वीकार्य
हिन्दी भाषा के उद्भवकाल में भाषा की परिभाषा को स्पष्ट करने के लिए एक पूरी विस्तृत प्रक्रिया प्रारम्भ हुई,जो इस प्रकार निर्धारित हुई:-
मनुष्य द्वारा उच्चारित उस मूल ध्वनि चिह्न को वर्ण नाम दिया गया जिसके खण्ड करने सम्भव ना हों,इन वर्णों के सार्थक समूहन से वर्णमाला का निर्माण हुआ तथा दो या दो से अधिक वर्णों के सम्मेलन से शब्द का निर्माण होता है।इन्हीं शब्दों के सार्थक व व्यवस्थित समूहन से वाक्य और वाक्यों को अपने विचारों,भावों,मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए जब प्रयोग किया जाता है,तो इस प्रकार भाषाएँ अस्तित्व में आती हैं।
इन्हीं भाषाओं को सुस्पष्ट करने के लिए इसके तीन रूपों का प्रयोग होता है,परन्तु केवल दो-मौखिक व लिखित ही तीसरे रूप सांकेतिक के अलावे प्रचलन में रहती हैं।
इनके प्रचलन में रहने के एकमात्र कारण और वह कारण है सांकेतिक भाषा द्वारा पूर्ण मनोभाव की स्पष्टीकरण ना होना।
(iii) विभिन्न बोलियों के प्रचलन के कारण हिन्दी भाषा के प्रयोग में उत्पन्न समस्या
तत्कालीन स्थिति में अपने मनोभावों को सुस्पष्ट करने के लिए भारतीयों द्वारा क्षेत्र विशेष में क्षेत्रीय या स्थानीय बोली के प्रयोग का प्रचलन था,उनकी अर्थात प्रत्येक भारतीय का यह मानना था कि हिन्दी भाषा के क्लिष्टम्(अत्यन्त कठिन) शब्दों के प्रयोग से जिसे समझ पाने में कठिनाई होती है,उसके स्थान पर क्षेत्र विशेष में प्रयुक्त बोलियाँ ही उनके भाव प्रवाहन के लिए उपयोग करना उन्हें अधिक पसन्द इसलिए आता था क्योंकि इसे पीढ़ी दर पीढ़ी से अपनाया जा रहा है और आज सहसा हिन्दी भाषा के प्रयोग से इसे अपनाने में सहजता नहीं हो रही थी क्योंकि क्षेत्रीय भाषा अर्थात बोली में प्रयुक्त शब्द उनके जिह्वा में बैठ चुके थे।
आदरसूचक शब्दों का समग्र भण्डार हिन्दी में
किसी भी भाषा को जनमानस द्ववारा स्वीकारने,अपनाने के लिए एकमात्र शर्त या मूलभूत बिन्दु है उसमें वृहत शब्द भण्डारों की उपलब्धता जिसके प्रयोग से जनमानस अपने भावों का समूचित प्रवाहण करके अपने मनोभाव इस विशद विश्व के साथ साझा कर सके।
अन्य भाषाओं में भाव प्रवाहण में समस्या होने का मूल कारण है उसमें अपने से बड़ों को संबोधित करने के लिए समुचित आदरसूचक शब्दों के समग्र भण्डार की अल्पता।
वहीं इसके विपरीत इस संस्कृत सुता हिन्दी के शब्दमालिका में अनेकों आदरसूचक शब्दों के दिव्यपुष्पों
की उपलब्धता जिससे इसके विशाल शब्दभण्डार की वाटिका सदैव से ही सुगन्धित रही है।
स्वयं से बड़ों के लिए प्रयोग होने वाले कुछ आदरसूचक शब्दों की सूची व उसके प्रयोग स्थान
हिन्दी भाषा में आदरसूचक शब्दों की सूचियों की एक वृहत्तम मंजूषा है और उनके प्रयोगों के लिए निर्धारित स्थान हैं :-
(i) पूज्यनीय :-यह एक सामान्य आदरसूचक शब्द है जो प्रायः अपने परिवार के बड़े सदस्यों व माता-पिता या गुरुजनों के लिए उपयोग किये जाते हैं।
(ii) सम्माननीय :-इस आदरसूचक शब्द का प्रयोग उस विशेष व्यक्ति के लिए किया जाता है,जिसकी अपनी एक सामाजिक प्रतिष्ठा है,प्रसिद्धि है।
(iii) आदरणीय :- इस आदरसूचक शब्द का प्रयोग किसी भी चिर-परिचित,अपरिचित जो हमसे आयु व योग्यता में बड़े हों उनके लिए किया जाता है।पत्राचारों में पिता,बड़े भाई,माता, भाभी,बड़ी बहन इत्यादि को भी सम्बोधित करने के लिए परम आदरणीय सम्बोधन प्रयुक्त होता है।
(iv) श्रद्धेय :- इस आदरसूचक शब्द का प्रयोग अपने से बड़े उन सभी गुणीजनों के लिए होता है जिनका सान्निध्य भरपूर इसलिए भाता है क्योंकि वे हमें ससमय उचित परामर्श देते हैं जिससे कि हम विपथित न हों और अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहें।
(v) ज्येष्ठ :-इस आदरसूचक शब्द का प्रयोग बड़े भाई को संबोधित करने के लिए किया जाता है।बड़े भाई के लिए अग्रज,भ्राता श्री जैसे शब्दों का भी प्रयोग होता है।
बड़ों ही नहीं छोटों को संबोधित करने के लिए भी अनेकों मधुरिम हिन्दी शब्द
मातृस्वरूपा हिन्दी में ही यह विशेषता पाई जाती है कि इसमें बड़ों के संबोधन के साथ-साथ छोटों को भी संबोधित करने के लिए अनेकों शब्द उपलब्ध हैं और जो बड़े ही आत्मीय हैं,उनमें से कुछ शब्दों के प्रस्तुतीकरण का प्रयास मैंने यहाँ किया है,जो सोदाहरण निम्नलिखित हैं :-
(i) अभिन्न :-यह छोटों को पुकारने के लिए एक यथोचित
शब्द है,जो अत्यन्त ही मधुर एवं हृदय को आनन्दित करने वाला है,जब किसी को "अभिन्न" कह पुकारा जाता है,तो ऐसा लगता है कि वह अपने हृदय के बिल्कुल निकट हो।
(ii) सहृदय :-इस स्नेहिल शब्द का प्रयोग जब किया जाता है,तो ऐसा प्रतीत होता है कि संबोधित व्यक्ति से जन्म-जन्म का रिश्ता जुड़ा हो।
(iii) प्रियवर :-इस स्नेहिल शब्द में बहुत अधिक अपनेपन की अनुभूति होती है।प्रियवर हम अपने भाई,हृदय के निकट जो मित्र है उसके लिए,व अन्य हृदय सम्बन्धित रिश्तों के लिए प्रयोग होता है।
(iv) स्नेहिल :- यह भी छोटों के लिए प्रयोग किया जाने वाला एक आत्मिक शब्द है,जिसका प्रयोग बहुत अधिक हिन्दी भाषा में मिलता है।
(v) अनुज :-इस शब्द का प्रयोग छोटे भाई के लिए किया जाता है।
सारांश में हिन्दी में विभिन्न संबंधोंं,रिश्तों-नातों को दर्शाने के लिए शब्दों की सूची बहुत बड़ी है,कुछ शब्द हमें ज्ञात हैं तो कुछ हमसे अज्ञात।
अन्य रिश्तों-नातों के लिए हिन्दी में प्रयोग होने वाले कुछ शब्द
हिन्दी भाषा की यही तो विशेषता है कि इसका शब्द भण्डार अत्यन्त ही विशाल है,असंख्य शब्दों की उपलब्धता है इसमें।
रिश्ते-नातों,सगे-संबंध को दर्शाने के लिए ही कुछ शब्दों के प्रयोग का दर्शन करें,इतनी मर्यादित,इतने शालीन,इतने शब्दों की शब्दावली क्या अन्यत्र कहीं देखने को मिलता है,
कुछ ऐसे ही शब्दों की सूची व प्रयोग स्थल निम्नलिखित हैं :-
(i) प्राणाधार :-पति के लिए प्रयोग होने वाला एक विशेषार्थ युक्त शब्द।इस शब्द का प्रयोग आदिकाल में रामायण,महाभारत इत्यादि ग्रन्थों में किया गया था और आज भी कहीं-कहीं इन शब्दों का प्रयोग अत्यन्त दर्शनीय है। कितना मर्यादित लगता है यह शब्द।कहाँ डार्लिंग और कहाँ प्राणाधार गगन- अम्बर इतना अन्तर।
( ii)प्राणवल्लभ :-इस तत्सम शब्द का प्रयोग भी पति के लिए हमारे ग्रन्थों,पुरातन महाकाव्यों इत्यादि में दर्शनीय है।गृहस्वामिनियों द्वारा इस शब्द विशेष का प्रयोग अपने गृहस्वामी या पति के लिए उनसे अतिशय प्रेम को दर्शाने के लिए होता था।आह! क्या प्रगाढ़ता,क्या सुमधुर शब्द और कहाँ हब्बी या हसबैण्ड ऐसा प्रतीत होता है कि वह जीव विवशता वश बस इस संबंध को जी रहा हो।
(iii) भगिनी :- भाषा हिन्दी में आत्मीय व अत्यन्त प्रिय संबंध बहन को दर्शाने के लिए प्रयुक्त यह शब्द विशेष हृदयतारों को झंकृत कर हमें इसका आभास कराती है कि इस धरा पर प्रत्येक संबंध कितने प्रगाढ़ अर्थात गहरे हैं।
भगिनी शब्द विशेषतः बहन के लिए हिन्दी भाषा में प्रयुक्त वह शब्द विशेष है जिसका पुरातन काल में अतिशय प्रयोग हुआ था,इसी शब्द का प्रयोग स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो के सभा भवन से कर वहाँ के लोगों को भी संबोधित किया था।
(iv) पितामह :- पिता के पिता अर्थात दादाजी के लिए प्रयोग किया जानेवाला यह शब्द कितना कर्णप्रिय लगता है और कितना ही मर्यादित, यही तो माते हिन्दी के चमत्कार हैं।
(v) जमाता :- संबंधों की प्रगाढ़ता को दर्शाता एक ओर शब्द जमाता जो पुत्री के पति,छोटी भगिनी अर्थात बहन के पति को संबोधित करता यह शब्द कितना मर्यादित है,क्या ऐसे शब्द अन्यत्र मिलते हैं।
(vi) पिताश्री :-एक ऐसा शब्दविशेष,एक ऐसा संबंध जो इस धरा पर अतिशय मूल्यवान है,उस अनन्य संबंध को माते हिन्दी ने कितना मर्यादित,सम्मानित बना दिया है।
(vii) मित्रवर :- आह! अद्भुत शब्द इस धरा पर विश्वास के सूत्रों से अलंकृत व शब्दविशेष जो किसी व्यक्ति के सन्तुलित व समृद्ध होने में महती योगदान देता है।
अभिवादन हेतु हिन्दी भाषा के कुछ विशेषार्थ युक्त शब्द व उनके प्रयोग
संस्कृत सुता हिन्दी की यही विशेषता इसे अन्यों से पृथक करते हुए विशेष सम्मान प्रदान करती है कि इसमें प्रत्येक स्थिति ,परिस्थिति,सगे-संबंध,रिश्ते-नाते,अभिवादन,आदर,सम्मान दर्शाने हेतु प्रचुर शब्द भण्डार है, अभिवादन के लिए प्रयोग होने वाले कुछ विशेष शब्द निम्नलिखित हैं :-
(i) प्रणाम :- अभिवादन के लिए,किसी को समुचित सम्मान देने के लिए प्रयोग किया जाने वाला यह शब्द विशेष प्रत्येक उम्र वर्ग के लिए एक-दूसरे द्वारा प्रयोग किया जाता है।
(ii) सादर प्रणाम :- अभिवादन के लिए ही प्रयोग किया जाने वाला यह दूसरा शब्द वृद्ध-वयोवृद्ध व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता है। इस विशेषार्थयुक्त शब्द का अन्वय जो कि अव्यय व संज्ञा के सुयोग से निर्मित हुआ है आदर सहित नतमस्तक अभिवादन के लिए होना।
इस अभिवादन के लिए प्रयोग होने वाले शब्द में सादर अव्यय व प्रणाम संज्ञा है।
(iii) प्रणिपात :- अभिवादन के लिए प्रयोग होने वाले इस तीसरे शब्द में प्रणिपात एक आदरसूचक शब्द है जो कि पुल्लिंग संज्ञा है इसका विशेषार्थ चरणों में बैठकर या गिरकर अभिवादन करना है,जिसे साष्टांग दण्डवत भी कहा जाता है।
(iv) प्रणति :-अभिवादन के लिए ही प्रयोग किया जाने वाला यह शब्द विशेष स्त्रीलिंग संज्ञा है जिसका विशेषार्थ प्रार्थना या विनती होता है।
( v) अभिनन्दन :- इस शब्द विशेष का प्रयोग किसी को यश या नवकीर्तिमान स्थापित करने,कुछ उपलब्धि प्राप्ति पर और कुछ कल्याणकारी करने पर संबोधित करने वाले अभिवादन के रूप में होता है।
हिन्दी भाषा और साहित्य
हिन्दी भाषा एक बहुत ही प्यारी भाषा है जिसे हर कोई अपना रहा है,जिसने इसे नहीं अपनाया,अंगीकार नहीं किया है वह भी इसमें रचे-बसे और गढ़े विभिन्न विषयों चाहे वह गद्य विधा में हो या पद्य विधा में,इसमें सृजित कृतियों का रसास्वादन करने के लिए इसे बड़े ही प्रेम से अपना रहा है।भारत माता की परतन्त्रता के पश्चात भले ही एक अन्य भाषा ने यहाँ अपने शासन का विस्तार किया है,परन्तु संस्कृत सुता हिन्दी के विभिन्न विधाओं को जिसने भी अंशतः ही सही जानना समझना प्रारम्भ किया,वह इस भाषा के मोह में पड़ने से स्वयं को नहीं रोक पाया।
इस चमत्कार का,इस आनन्द का मूल कारण है इस संस्कृत सुता की आत्मीयता।इसका स्वरूप इतना सरल है कि इसे थोड़े ही प्रयत्नों के पश्चात सरलता से पढ़ा-सीखा जा सकता है और समझा और समझाया जा सकता है।
सारांश में इसमें भावों की अभिव्यक्ति करने,भावों का प्रवाहण करने में सुगमता होती है।
संस्कृत सुता हिन्दी की विशेषता यही है इसमें विखण्डता नहीं बंधुता के भाव स्पष्ट होते हैं।
हिन्दी भाषा के साहित्य में सबके हित की बात होती है अर्थात इसमें स +हित के भाव को समाहित किया गया है न कि -र+हित को।
विभिन्न भाषाओं के शब्दों को स्वयं में अंगीकार करने वाली हिन्दी
हिन्दी भाषा का विशाल शब्दकोश इस बात का द्योतक है कि इसने किसी भाषा से कभी वैर नहीं रखा है,अपितु जिसने भी इसमें सहर्ष समाहित होना चाहा,सभी को इसने अंगीकार किया और अपने सान्निध्य में जीवंत होने,सर्वोच्चता को प्राप्त करने का अवसर प्रदान किया।
सरल क्यों है सीखना हिन्दी :-सदैव इस भाषा के साथ यह प्रश्न भी मानस पटल में प्रस्तुत होते रहते हैं कि
आखिर इस भाषा में ऐसी क्या चमत्कारिक शक्ति है कि इसे अन्य भाषाओं की अपेक्षा अतिशीघ्र और बड़ी ही सुगमता से सीख लिया जाता है ?
इस प्रश्न के उत्तर को ढूँढने के लिए मैंने कुछ निष्कर्ष निकाले हैं,जो बिन्दुवार निम्नलिखित है :-
(i) इस भाषा में अपने भावों की अभिव्यक्ति करने में सुगमता होती है क्योंकि इसे जिस प्रकार पढ़ा जाता है,उसी प्रकार लिखा भी जाता है।
(ii) इसमें अन्य भाषाओं की तरह अक्षर विशेष के मौन या गौण होने की असुविधा नहीं होती और न ही कोई ऐसे क्लिष्ट(कठिन)शब्द हैं जिसे जानने-समझने के लिए सदैव शब्दकोश की आवश्यकता पड़े।
(iii) इसमें अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए किसी की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती है,इसे स्वयं के प्रयास से सरलता से व्यक्त किया जा सकता है।
(iv) इस संस्कृत सुते! माते हिन्दी की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि यह अपने आराधक,अध्येताओं पर अपनी असीम वात्सल्य न्योच्छावर कर देती है।
(v) इस भाषा को जीवन प्रारम्भ से ही प्रयोग करने के कारण इसमें भाव अभिव्यक्ति में सुगमता होती है।
हिन्दी भाषा और उसका साहित्य में प्रयोग
हिन्दी भाषा को साहित्य के क्षेत्र में भी भारतीय साहित्यकारों,कवियों,कथाकारों,उपन्यासकारों,व्यंग्यकारों द्वारा बहुत अधिक प्रयोग किया गया है।
विभिन्न प्रकार के लेखों,आलेखों,काव्यों,कथाओं,उपन्यासों,व्यंग्य लेखों व आलेखों में इसके प्रयोग के पूर्ण प्रमाण मिलते हैं।
हिन्दी भाषा को अपने लेखों,आलेखों,व्यंग्य आलेखों काव्यों में प्रयोग किए जाने वाले विभिन्न लेखकों,कवियों,कवयित्रयों में से कुछ प्रसीद्ध नाम हैं :-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला,महादेवी वर्मा,मुंशी प्रेमचंद,हरिवंश राय बच्चन,रामधारी सिंह 'दिनकर',फणीश्वरनाथ रेणु,हरिशंकर परसाई इत्यादि।
जब हिन्दी भाषा का प्रयोग साहित्य में होता है तो सृजन जीवंत हो उठती है।
हिन्दी भाषा का मानवीय गुणों की संस्थापना में महती योगदान
Arjunah uvachah-Neta bnna aasan magar shikshak muskil
संस्कृत-सुता हिन्दी के आविर्भाव के पश्चात आङ्गल भाषा से क्लांत व पशुवत हुए मानव जाति में पुनः मानवीय गुण को संचारित करने के लिए माते हिन्दी ने मानव को वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से प्रेरित कर उसे रिश्तों की मर्यादा,अपने पूज्यनीयों का समुचित सम्मान और स्नेहीजनों की देखभाल का उपाय बताया।
माते हिन्दी ने बिखरते रिश्ते को सँजोकर रखना सिखाते हुए आत्म को परमात्म से जोड़ने के लिए इसमें काव्यों
व छंदों का प्रवाह कर इसने इस समग्र सृष्टि को संयोजित करने के लिए सकल समष्टि को वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को स्वयं में अंगीकार करने की प्रेरणा दी।
मातृस्वरूपा हिन्दी से मेरे भक्ति की शुरुआत
वैसे तो भारत विविधताओं में एकता वाला देश रहा है और इसका दर्शन हमारी इस मातृस्वरुपा हिन्दी में भी होता है ,विभिन्न भाषाविदों ने हिन्दी के विषय में विभिन्न परिभाषाओं को हमारे सम्मुख रखा है ,किसी ने इसे जनमानस के द्वारा स्वेच्छिक रुप से अपनायी हुई भाषा के रुप में माना है तो किसी ने इसे प्रतिष्ठित समाज की भाषा के रुप में विस्थापित किया,कुछ विद्वानों ने इसे विचार विनिमय का साधन बतलाया तो किसी ने इसे साहित्यिक भाषा तक ही सीमित रखना चाहा।
जब मैं विद्यार्थी था तो आधुनिक हिन्दी व्याकरण एवं रचना जो डाॅक्टर वसुदेव नन्दन प्रसाद जी द्वारा रचित है तो अनमने ढंग से ही इसके कुछ अध्यायों को पढ़ केवल पास करने के उद्देश्य से कुछ विपरीतार्थक शब्द,पर्यायवाची शब्द,लच्छेदार भाषाशैली में निबन्ध,कुछ कार्यालयी सम्बन्धित ,कुछ रिश्तेदारों को लिखे जाने वाले पत्रों को बस पढ़ लिया करता था,ईश कृपा से व गुरुजनों के मार्गदर्शन से उत्तीर्ण तो हुआ,परन्तु एक कमी सी सदैव मन में रही कि इसे पूर्णतः समझ नहीं पाया।
संभवतः भूलवश इस आधुनिकतम सभ्य समाज के अंधी दौड़ में सम्मिलित पाश्चात्यता की चादर ओढ़े हम सभी मातृस्वरुपा हिन्दी का सत्कार मात्र अतिथियों की भाँति ही करना श्रेयस्कर मानते थे,क्योंकि अज्ञानता की ठंड में ठिठुरती मानसपटल को मातृस्वरुपा हिन्दी के स्नेह का चादर जो न मिल पाया था,इसका मूलभुत कारण था हमारे इस घर में बने स्वादिष्ट व्यञ्जनों को धत्ता कर बाहर बने चार दिन पहले की भी पकवानों का रसास्वादन करनेवाले काया में उपस्थित हमारी मानसपटल की यह सोच कि हमारी भाषा हीन है और गैरों की भाषा,दूसरों की भाषा अतिशय रुचिकर ।
यही सोच संभवतः हम विद्यार्थियों को भाषा अज्ञान से ठिठुरते हुए भी मातृस्वरुपा हिन्दी द्वारा स्नेहपूर्ण चादर को प्रदान करने के पश्चात भी इसे हमारे द्वारा तिरस्कृत करना।
परन्तु आज के समय में इस विद्यार्थी के उच्च विद्यार्थी होने पर,क्योंकि शिक्षक भी विद्यार्थी ही होते हैं,इसलिए मैंने स्वयं को उच्च विद्यार्थी कहा है और जब आज इस विद्यार्थी के विद्यार्थी उसी पुस्तक का अध्ययन कर रहे हैं और आज के समय में संभवतः यह विद्यार्थी साहित्य पिपासु है तो अपने विद्यार्थियों को इस मातृस्वरुपा हिन्दी द्वारा प्रदान की गयी अज्ञानता के ठंड से ठिठुरते आज के विद्यार्थियों को बचाने के लिए जब यह चादर कई वर्षों के पश्चात सहर्ष स्वीकार कर लिया गया तो आज बहुत वर्षों के पश्चात भाषा -अज्ञानता के ठंड से ठिठुरते मानसपटल को एक अपूर्व आनन्द मिला,उसी आनन्द को आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ कि मातृस्वरुपा हिन्दी और भारत देश के मध्य कैसा संबंध रहा है:- परिनिष्ठित भाषा व्याकरण के नियमों पर आधारित होती है,संभवतः यही कारण आज पाश्चात्यता के अंधे दौड़ में भटकता हमारा आधुनिक समाज मातृस्वरुपा हिन्दी को अपना नहीं पा रहा,पर मैं पूर्ण विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जब आप इनकी निर्मल धारा में स्नान करना प्रारम्भ करने लगेंगे तो आपको भी मीराबाई को जिस भाँति कान्हा से अनुराग हुआ था,उसी भाँति आप भी इनके निश्छल स्नेह में पड़ सुधबुध खो इनके पीछे भागना प्रारम्भ कर देंगे।
साथ ही इस मातृस्वरुपा हिन्दी की यह विशेषता और आकृष्ट करती है जो डाॅक्टर वसुदेव नन्दन प्रसाद जी ने यह बात लिखी है इसे पढ़ हमारा वक्षस्थल प्रफुल्लित हो उठता है:-
हिन्दी भाषा किसी अन्य भाषा की ऋणी नहीं अर्थात इस भाषा का काम उधार पर नहीं चल रहा है।
हाँ ये बात और है कि इस मातृस्वरुपा हिन्दी ने महाकाल शम्भु की भाँति ही सबको अपनाया है,यथा इसने बड़े ही प्रेम से उर्दू,अरबी,फारसी,पुर्तगाली,कुछ आङ्ग्ल भाषा के शब्दों को अपने में उसी भाँति समाहित कर लिया जिस भाँति महादेव शंकर ने कालकूट को प्रेमपूर्वक धारण कर लिया था।
यह केवल भावों की अभिव्यक्ति मात्र नहीं,अपितु हृदय तार को झंकृत करने वाली वो साधन है जो अपने झंकार से यह सिद्ध करती है कि वक्ता व श्रोता की प्रस्तुत तथ्यों को सुनने व समझाने में अभिरुचि है अर्थात् श्रोता की वक्ता को सुनने की बाध्यता नहीं,अपितु उसे वक्ता द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को जानने व समझने में अभिरुचि है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है भाषा जो भाष् धातु से उत्पन्न हुई है वह भावों की अभिव्यक्ति का साधनमात्र नहीं,अपितु प्रस्तुत तथ्यों में अभिरुचि उत्पन्न करने-कराने का साधन है।
अतएव हमारी भाषा ऐसी हो जिसकी स्पष्टता के लिए ,उसे ग्रहण करने के लिए अन्य साधनों की आवश्यकता न हो।
उदाहरणार्थ ,यदि हम सांकेतिक भाषा को लें तो यह सुस्पष्ट नहीं होती न ही यह सर्वग्राह्य होती है,उसे समझने हेतु अतिशय परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ जाती है।
भाषा के स्पष्ट होने का उत्तरदायित्व
भाषा के स्पष्ट होने का सर्वोच्च उत्तरदायित्व भाषावक्ता का होता है क्योंकि श्रोता उसे सुनकर व समझकर ही अपनी अभिव्यक्ति देता है।
इसी कारण यदि भाषावक्ता अपने द्वारा प्रस्तुत तथ्य को अपनी भाषा के माध्यम से समझाने में सक्षम नहीं होता है तो वहाँ श्रोता तथ्यों को भली-भाँति ग्रहण नहीं कर सकेगा।
भाषावक्ता के उत्तरदायित्व के अंतर्गत यह भी समाहित है कि वह अपने तथ्यों को जब प्रस्तुत करे तो वह सरल वाक्यों का प्रयोग करे।
उदाहरणार्थ यदि एक व्यक्ति को अपने साइकिल में हवा डलवानी है और वो हवा डालने वाले के पास जाकर यदि ऐसा कहता है कि ,"हे श्रीमान पवन प्रवाहक महोदय,आपसे सादर विनती है कि आप मेरे द्विचक्रीय यान के एक चक्र में पवन का प्रवाह कर दें तो यहाँ यह आवश्यक नहीं कि वो महानुभाव हिन्दी भाषा के अच्छे विशेषज्ञ हों,सज्जनों !
ऐसी स्थिति में विकट परिस्थिति भी उत्पन्न हो सकती है:-
भगवान भला करे,कहीं वो यदि क्रोध के अश्व पर सवार रहा तो आपकी अच्छी-भली मरम्मत वो कर सकता है और यह अश्व यदि अतिशय वेग में रहा तो आपको ऐसी जीर्णावस्था की ओर पहुँचा सकता है जो आपका कभी भी पुनरुद्धार न होने दे।
यहाँ एक परिस्थति यह भी उत्पन्न हो सकती है कि पवन प्रवाहक आपके उस द्विचक्रीय यान में पवन का प्रवाह इस कारण ही न करे कि उसे आपके द्वारा प्रस्तुत तथ्य यानि भाषावक्ता द्वारा कथ्य किञ्चितमात्र भी समझ न आए और यह सर्वविदित है कि जब
आप समझेंगे ही नहीं तो अभिरुचि का सवाल ही उत्पन्न कहाँ होगा।
सारांश यह कि उस परिस्थिति में यह श्रेयस्कर है कि आप सीधे-सीधे यह कह लें कि,"हवा डालने वाले भैया मेरे साइकिल में थोड़ा हवा भर दो।"
इस प्रकार सरल भाषा में कहने के कारण वो बड़ी प्रसन्नता से आपका अभीष्ट कार्य कर देगा।
आधुनिक भाषा की अवधारणा:-
संभवतः आधुनिक भाषा की नींव इन्हीं तथ्यों के आधार पर रखी गयी है कि जो सब समझ पाए वही उचित होता है।
अतएव भाषा की उचित परिभाषा यह है कि ,"वह साधन जो सब बड़ी सरलता से समझ सकें भाषा है।
बने राष्ट्रभाषा हिन्दी :-ममत्व,प्रेम,मित्रता,आदर,सम्मान,मनोभावाभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करने वाली हिन्दी भाषा को अभी तक केवल राजभाषा का दर्जा मिलना विडम्बनामात्र ही तो है,अब वह समय आ चुका है कि हमारी प्यारी मृदुभाषिणी,मातृस्वरूपा हिन्दी राजभाषा बने अब इस हेतु एक सशक्त अभियान चलाने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष :- उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है हिन्दी ऐसे भावों का प्रवाहण करनेवाली प्रवाहिका है जो विविध भावों को हमारे मनोनुकूल प्रस्तुत करती है तथा यह एक विशाल पैमाने पर सकल भारतीय जनमानस के हृदयों में स्थान बनाती जा रही है।
अब माते हिन्दी के लिए मेरे द्वारा समर्पित कुछ भावपुष्प विभिन्न छंदों में :- १.सायली छंद-यह एक पाँच पंक्तियों और नौ शब्दों में लिखी जाने वाली छंद काव्य है जिसमें पंक्तियों में शब्द विस्तार निम्नवत है :-
प्रथम पंक्ति -एक शब्द
द्वितीय पंक्ति-दो शब्द
तृतीय पंक्ति-तीन शब्द
चतुर्थ पंक्ति-दो शब्द
पंचम पंक्ति-एक शब्द
हिन्दी
एक प्यारी
भाषा अपनाएं सभी
मान हमारी
अभिमान।१
मानस
तुलसी रचे
भक्तिन मीरा पदावली
सबको भाए
हिन्दी।२
इसमें
वीर गाथा
प्रीत का सार
करे मनुहार
हिन्दी।३
ममत्व
अपनत्व दर्शन
गीतिका हरिगीतिका सुन्दर
खूब सृजित
दिखती। ४
...........................................................................
२.ताँका -यह एक वार्णिक गणना पर आधारित जापानी काव्य विधा है,जिसमें वर्ण विधान इस प्रकार है :-
प्रथम पंक्ति-५ वर्ण
द्वितीय पंक्ति-७ वर्ण
तृतीय पंक्ति-५ वर्ण
चतुर्थ पंक्ति-७ वर्ण
पंचम पंक्ति-७ वर्ण
इस काव्य का भाव पहली से पाँचवीं पंक्ति तक निहीत रहता है।
मृदुभाषिणी
भाव की संप्रेषिका
आत्मीय हिन्दी
अभिमान हमारी
भाषा ये स्वाभिमान।१
सद्भावना का
करती प्रसार ये
नाम जिसका
मातृस्वरूपा हिन्दी
ममता वो लुटाए।२
आत्माभिमान
स्वाभिमान ये हिन्दी
संस्कृत सुता
जानती सम्मेलन
ना जाने विखंडन।३
भारत आशा
सरल यह भाषा
पूरित अभिलाषा
करती सदा यह
जन-जन की हिन्दी। ४
.................................................................................
३.चोका-यह भी एक वार्णिक गणना पर आधारित जापानी काव्य विधा है,जिसमें ताँका की तरह ही वर्ण विन्यास ५,७,५,७,७ अर्थात पहली पंक्ति-५ वर्ण,द्वितीय पंक्ति-७ वर्ण,तृतीय पंक्ति-५ वर्ण,चतुर्थ पंक्ति-७ वर्ण तथा पंचम पंक्ति-७ वर्ण होता है।इस विधा में कुल पंक्तियाँ हमेशा ९ या उससे अधिक होती है,परन्तु पंक्तियाँ विषम ही होंगी।अर्ध वर्णों की गिनती नहीं होती तथा सभी पंक्ति स्वतंत्र और स्वयं में अर्थपूर्ण होती हैं,किसी भी पंक्ति को अपने अर्थ के लिए दूसरे पंक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
ममतामयी
भावों की प्रवाहिका
ज्ञान सलिला
मातृस्वरूपा हिन्दी
जनमानस आशा।
स्वाभिमान ये
अभिमान है हिन्दी
मानवर्धिका
नेह अमृतधारा
तृप्त करे जिज्ञासा।
संस्कृत सुता
पतित पावनी है
ज्ञानदायिनी
पहचान हमारी
सरल भाषा हिन्दी।
तेजस्विनी है
ओजस्विनी ये भाषा
मृदुभाषिणी
सुसंस्कार वर्धिका
अलंकरण हिन्दी।
होती सुग्राह्य
सरलतम रूप
अति अनूप
सुगढ़ अति भाषा
सुस्पष्ट परिभाषा।
भाव प्रेष्या ये
रखती मित्रभाव
सिद्धि प्रदात्री
भाव की अभिव्यक्ति
करता राष्ट्र भक्ति।
कीमती रत्न
सदा राष्ट्र हितेैषी
अच्छी शिक्षिका
हे संस्कृत सुपुत्री
जय भाव निर्मात्री।
विचारशक्ति
प्रबल भाव युक्ति
प्रीत सिखाए
शिष्टाचारों की शाला
सुन्दर भाव माला।
मान बढ़ाए
जगती विश्वास ये
प्रबल भाव
निर्मल गंगधार
यह हिन्द आधार।
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४. धनुषाकार वर्ण पिरामिड :-यह भी एक वार्णिक गणना पर आधारित जापानी काव्य विधा है,जिसमें वर्ण विन्यास निम्नलिखित प्रकार से है :-
प्रथम पंक्ति-एक वर्ण
द्वितीय पंक्ति-दो वर्ण
तृतीय पंक्ति-तीन वर्ण
चतुर्थ पंक्ति-चार वर्ण
पंचम पंक्ति-पाँच वर्ण
षष्ठ पंक्ति-छह वर्ण
सप्तम पंक्ति-सात वर्ण
अष्टम पंक्ति-सात वर्ण
नवम पंक्ति-छह वर्ण
दशम पंक्ति-पाँच वर्ण
ग्यारहवीं पंक्ति-चार वर्ण
बारहवीं पंक्ति-तीन वर्ण
तेरहवीं पंक्ति-दो वर्ण
चौदहवीं पंक्ति-एक वर्ण
मैं
वही
हिन्दी हूँ
जो देती है
तुम्हें शिक्षा ये
मानव तू सुन
मानवता कभी ना
यहाँ भूले छोड़ना
वरदान देती
अभी तुमको
सदा याद
रखना
इसे
है
2
ये
सुधा
मिश्रित
आशीष है
तुम्हें सदा ही
कर ले जीवन
निहाल अपने तू
रख सुरक्षित तू
देख मजबूत
इरादे भी होंगे
इससे ही
जान
लेना
ये
भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏
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५.त्रिकोणीय तुकांत कविता १८ अध्याय विधान :-इसमें प्रत्येक पंक्ति में एक- एक अक्षर बढ़ता जाता है और अंत में तुक मिलाकर क्रमशः शब्दचित्र आगे बढ़ाकर और अन्तिम में भाव स्पष्ट कर दिया जाता है। यह बिल्कुल पिरामिड की तरह ही है,पर थोड़ा अन्तर है।
है
मान
प्रज्ञान
ये विज्ञान
मेटे अज्ञान
सुन्दर विधान
करे लक्ष्य संधान
बनाए राष्ट्र महान
हर भारत वरदान
यह बुद्धि करती प्रदान
जिससे बढ़ी भारत की शान
रचित गीतिका इसमें है गान
हरदम भाव का करती वर्धन
मनोभावों का यह करती संवर्धन
परस्पर करना सहयोग देती शिक्षा
सदा मानवीय गुण बढ़ाने की देती दीक्षा
परिभाषित करती यही क्या है अनुशासन
करुणा प्रेम जहाँ दयाभाव वहीं हिन्दी शासन।
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६.चंडिका छंद :-यह एक सममात्रिक छंद है जिसका विधान १३ मात्राएं पदांत रा ज भा (२१२) अनिवार्य है।
हिन्दी बिन्दी हिन्द की।
प्राण सभी ये छंद की।।
मधुर यही मकरंद है।
अति दिव्य ये गन्ध है।।१
देती बल यह भाव को।
भर दे सब यह घाव को।।
यही तो अमृत धार है।
करे हिन्द शृंगार है।।२
सभी ज्ञान की खान है।
हिन्दी अति गुणवान है।।
कवियों की यह काव्य है।
यही भाषा अति श्लाघ्य है।।३
भाती सबके कर्ण है।
सुन्दर इसका वर्ण है।।
गौर नहीं ना श्याम है।
जिसका हिन्दी नाम है।। ४
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७.मदलेखा छंद :-गुरुजनों के मार्गदर्शनानुसार यह एक वार्णिक छंद है,जिसकी गणावली मातारा सलगा गा होती है।
माते ध्यान धरूं मैं।
चाहूँ त्राण करूं मैं।
फैले जो बस वैरी।
देते हैं बस फेरी।।
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८.विधाता छंद :-यह एक मात्रिक छंद है जिसमें कुल २८ मात्राएँ होती हैं और इसमें १४-१४ की मात्राओं पर यति होती है
तथा पहली,आठवीं ,पन्द्रहवीं,बाईसवीं मात्राएँ लघु (१) होती है।
इसकी मापनी विधान १२२२, १२२२, १२२२, १२२२
हृदय के तार ये जोड़े,करे मनुहार ये हिन्दी।
मिटा कर वैर को दिल से,भरे संस्कार ये हिन्दी।।
लगे मुरली,मधुर जैसे,सुरीली तान है हिन्दी।
भजन हो ईश का जैसे,सुनो जी मान लो हिन्दी।।
कथा या काव्य हो कोई,सरल कुछ भी,अजी रचना।
चलो इसको,अभी पढ़लो,बन अँग्रेजी़,नहीं नचना।।
ग़ज़ल गीतें,लिखें चाहें,प्रवाहित काव्य ही कर दें।
बहुमूल्य रत्न हिन्दी है,सुनें मनभर,इसे भर लें।।
विरह का गीत है हिन्दी,सुखों का सार हिन्दी है।
करे शृंगार जो हिन्द का,वही अलंकार हिन्दी है।।
पतन सोचे ,नहीं केवल,सुनो उत्थान हिन्दी है।
सिखाती जो,मृदु व्यवहार,वही संस्थान हिन्दी है।।
भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏
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९.कुकुभ छंद विधान:-यह एक सममात्रिक छंद जिसमें कुल ३० मात्रा तथा १६-१४ की मात्रा पर यति तथा चरणांत गुरु- गुरु अनिवार्य है।
नहीं सुनें बस भाषा हिन्दी,शान हमारी इससे है।
प्रबल ज्ञान ये देती हमको,जीवन शोभित इससे है।।
मर्यादा का इसमें दर्शन,संगम ये संस्कारों की ।
हर हिन्दी का प्राण समाया,गाथा ये उपकारों की ।।
अनुशासन का पाठ पढ़ाए,मित्र बनी भी सच्ची है।
ममतामयी मात ये प्यारी,शिक्षिका सबसे अच्छी है।।
जनमानस के मन को भाए,सबकी यह अभिलाषा है।
संस्कृत तनया इस हिन्दी की,बस इतनी परिभाषा है।।
पाठ प्रीत का हमें सिखाती,नैतिक मूल्य बताती है।
राहों के ये कंटक हरदम,चुन-चुन सदा हटाती है।।
भक्ति-भाव प्रकृति का दर्शन,देशप्रेम भी दिखता है।
धरती इसकी गाती महिमा,गगन कहानी लिखता है।।
कबीर तुलसी अरु मीरा ने,इसको सब अपनाते हैं।
नहीं करें अब थोड़ी देरी,राष्ट्रभाषा बनाते हैं।।
भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏
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१०.ममतास्वरूपा माँ हिन्दी की आरती
ॐ जय हिन्दी माता, मैया जय हिन्दी माता।
तुमको निशदिन ध्यावत,हर भाषा विज्ञाता।।
ॐ जय हिन्दी माता ---------------
ज्ञान, मान, वाणी, तुम ही बल-दाता।
धरा, अम्बर ध्यावत,खग- मृग गाता।।
तुम अज्ञान-निवारिणी,यश-बुद्धि दाता।
जो कोई तुमको ध्यावत, निश्चय-शुभ-फल पाता।।
ॐ जय हिन्दी माता --------------------
तुम संस्कृत की बेटी, ममतामयी माता।
जो जन तुमको ध्याता, चहुँओर सुख पाता ।।
भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏
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११.हिन्द देश की शान यही है,मन से इसको पढ़ लो।
नहीं कठिन है इसमें लिखना,चाहो जो वो गढ़ लो।।
जनमन इसका मान करे है,लगती सबको प्यारी।
संस्कृत भाषा की ये बेटी,छवि इसकी है न्यारी।।
नमन करें हम माता हिन्दी,हमको समृद्धि देना।
रीत प्रीत की फिर से लाएं, ये सदा सिद्धि देना।।
अपनेपन का ऐसा दर्शन,भला कहीं पर होता।
नहीं समझता जो भी इसको,बैठा हरदम रोता।।
कोयल की इसमें बोली है,अरु धरती हरियाली।
मात-पिता का प्रेम इसीमें,और छुपा खुशहाली।।
भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏
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१२.अतुकांत कविता
हिन्दी हूँ मैं।
हाँ हिन्दी हूँ मैं।
माँ भारती की
समृद्धि हूँ मैं।।
मैं मित्र हूँ
पथप्रदर्शिका हूँ मैं
मैं माँ हूँ
माँ की
ममता हूँ मैं
मैं आशा
माँ भारती की
अभिलाषा हूँ मैं
संस्कृत से जन्मी
संस्कृति हूँ मैं
मैं वाक्
मैं तपस्या
मैं अभिव्यक्ति
प्रस्तुति हूँ मैं
मैं नाद
मैं निनाद
मैं सन्मार्ग
मैं सद्गति
संगति हूँ मैं
हाँ हिन्दी हूँ मैं!
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९३..चामर छंद :-यह एक वार्णिक छंद है,जिसका विधान २१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २=कुल २३ वर्ण ।
आन बान शान ये विधान हिन्द की सुनें।
ज्ञान खान मान लें प्रधान काव्य की गुनें।।
छंद गीत प्रीत रीत सीख दे यही हमें।
हार जीत भूलके मिलो कहे सदा तुम्हें।।
१४.श्येनिका छंद विधान ~ रगण जगण रगण लघु गुरु
११ वर्ण ( २१२ १२१ २१२ १२)
( दो - दो चरण समतुकांत )
आन बान मान शान हिन्द की
ऋद्धि सिद्धि बुद्धि वृद्धि हिन्द की
प्रीति नीति रीति गीतिका यही
नेह गेह ज्ञेय वर्तिका(तूलिका) सही
भारत भूषण पाठक"देवांश"🙏🙏🙏
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१५.मनमोहन छंद विधान :- यह चार चरणों का सममात्रिक छंद है।इसके प्रत्येक चरण में १४ मात्राएँ।
इसमें यति ८-६ मात्रा पर रखी जाती है,अन्त में नगण (१११) अनिवार्य है।इसमें क्रमागत दो-दो चरणों या चारों चरणों पर तुकान्त रखा जा सकता है।
पढ़े-पढ़ें सब,समझ-समझ।
इसमें क्या है,भला हरज।।
सुन्दर भाषा,बड़ी सरल।
दूर करे ये,तिमिर गरल।।
कितने रचते,पद हरपल।
निर्मल धारा,ज्यों कलकल।।
माते हिन्दी,करूँ नमन।
वैर भाव को,करो दमन।।
संस्कृत पुत्री,मिले शरण।
विनय करूँ ये,धरे चरण।।
भारत भूषण पाठक'देवांश'🙏🌹🙏
कुछ आवश्यक प्रश्न
प्रश्न १ :-मनमोहन छंद की परिभाषा तथा विधान बताएं ?
उत्तर-यह चार चरणों का सममात्रिक छंद है।इसके प्रत्येक चरण में १४ मात्राएँ।
इसमें यति ८-६ मात्रा पर रखी जाती है,अन्त में नगण (१११) अनिवार्य है।इसमें क्रमागत दो-दो चरणों या चारों चरणों पर तुकान्त रखा जा सकता है।प्रश्न २ :-चामर छंद की परिभाषा तथा विधान बताएँ ?
उत्तर- यह एक वार्णिक छंद है,जिसका विधान
२१ २१ २१ २१ २१ २१ २१ २=कुल २३ वर्ण ।
प्रश्न ३ :- चंडिका छंद की परिभाषा तथा विधान बताएँ ?
उत्तर- यह एक सममात्रिक छंद है जिसका विधान १३ मात्राएं पदांत रा ज भा (२१२) अनिवार्य है
प्रश्न ४ :-पद्धरि छंद की परिभाषा व विधान को बताएँ ?
उत्तर- चार चरणों के इस सममात्रिक छंद में १६ मात्राएँ प्रति चरण व आरम्भ द्विकल से और अंत जभान से होता है।इसे दो-दो चरण समतुकांत भी रखा जा सकता है।
प्रश्न ५ :- कुकुभ छंद की परिभाषा व विधान को बताएँ ?
उत्तर-यह एक सममात्रिक छंद है,इस चार पदों के छंद में प्रति पद ३० मात्राएँ होती हैं।प्रत्येक पद १६ और १४ मात्रा के दो चरणों में बँटा हुआ रहता है।विषम चरण १६ मात्राओं का और सम चरण १४ मात्राओं का होता है। दो-दो पद के तुकान्तता का नियम है।
प्रश्न ६ :- अमी छंद की परिभाषा तथा विधान बताएँ ?
उत्तर- इस वर्णिक छंद के विधान में प्रति चरण नौ वर्ण होते हैं।गुरुजनों के मार्गदर्शनानुसार गणावली- नसल जभान यमाता।
इसकी मापनी १११,१२१,१२२ होती है,इसके चार चरण होते हैं ।
प्रश्न ७ :-सुमेरु छंद के विधान को बताएँ ?
उत्तर- इस छंद के प्रत्येक चरण में १२+७=१९ अथवा १०+९=१९ मात्राएँ होती हैं ; १२,७ अथवा १०,९ पर यति होती है ; इसके आदि में लघु १ आता है जबकि अंत में २२१,२१२,१२१,२२२ वर्जित हैं तथा १८,१५ वीं मात्रा लघु १ होती है ।
प्रश्न ८ :-उडियाना छंद के विधान को बताएँ ?
उत्तर- यह एक २२मात्रिक छंद है,जिसमें १२,१० मात्रा पर यति,यति से पूर्व व पश्चात त्रिकल अनिवार्य,
चरणांत में गुरु (२),दो- दो चरण समतुकांत होते हैं
चार चरण का एक छंद कहलाता है।
प्रश्न ९ :-घनाक्षरी छंद किसे कहते हैं ?
उत्तर-यह एक वार्णिक छंद है,जिसके चार पद होते हैं,जिसमें प्रत्येक पद में चार चरण होते हैं पहले तीन चरण में ८,८ वर्ण और चौथे चरण में ७-८ या ९ वर्ण होते हैं। अंतिम चरण में वर्णों के आधार पर घनाक्षरी के प्रकार का निर्माण होता है।
प्रश्न १० :-रूप घनाक्षरी के विधान को बताएँ ?
उत्तर- इस प्रकार के वार्णिक छंद के प्रत्येक पद में चार चरण होते हैं,इसके चारों चरण में ८-८-८-८ वर्ण होते हैं।#राधेश्यामी छंद#पंचचामर छंद#विधाता छंद#जयकरी छंद#चंडिका छंद#मदलेखा छंद#मनमोहन छंद#चामर छंद#सुमेरू छंद#श्येनिका छंद
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Very 👍 nice 🙂
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