विचारशून्य भारत-२०२३ का भारत दर्शन

विचारशून्य हो गया है भारत

क्यों आज विचारशून्य हो गया है भारत ? राष्ट्रीय पर्वों का महत्व आज केवल एक दिन का जयघोष मात्र ही रह गया है !चाहे कोई भी राष्ट्रीय पर्व हो आम आदमी केवल जयघोष कर लेना ही देशप्रेम मानता है

Vicharsunya Bharat-2023 ka Bharat Darshan
 

एक बार इस जयघोष को श्रवण करने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ,हुआ यूँ कि भूलवश ही मैं एक एकदिवसीय जयघोषी व्यक्तित्व के आवास पर उनसे मिलने चला गया,वे तब जोर-शोर से अपने जयघोष के अभ्यास में लगे हुए थे,उनको छेड़ना मुझे किस कदर भारी पड़ा आइए जानते हैं ।

जयघोषी व्यक्तित्व के विचार

मैंने जब सदा की भाँति उन्हें उस दिन भूलवश ही जब नमस्कार किया और उनके हाल-चाल पूछ ही क्या लिए,वो एकदम से सुतरी बम की भाँति फूट पड़े कि आज नमस्कार-वमस्कार को मारिए गोली।
आप मैं तो भारतीयता के दर्शन ही नहीं हो रहे,कैसे भारतीय हैं आप ? क्या आप मैं माँ भारती के लिए तनिक भी सम्मान नहीं है ? आज क्या दिनांक है,क्या आप ये भी नहीं जानते ?
अरे दिनांक को मारिए गोली,क्या आपने किसी से ये भी नहीं सुना कि कल अपने प्यारे भारत देश के लिए एक अनमोल दिवस है।
तब मैंने मन ही मन विचार किया कि इस लेखक के प्रत्येक दिन की शुरुआत ही माँ भारती के यशोगान से होती है।
मैंने ऐसा तो केवल उन्हें छेड़ने के लिए,टटोलने भर के लिए ही जय हिन्द छोड़ नमस्कार कहा था,पर ये तो एकदम से उबल ही उठे।इतना शान्त,सौम्य व शालीन व्यक्तित्व इतना उबले आश्चर्य की ही बात तो थी।
फिर मैं वहाँ मौके की नज़ाकत को भाँपा और अपनी गलती स्वीकारते हुए उन्हें मुस्कुराकर सहसा ही जय हिन्द कह उठा और बड़ी ही चतुरता से उनसे यह जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा की ,कि आज ही केवल क्यों ?प्रत्येक दिन ही क्यों नहीं !
पता लगाने के अपने फॉर्मूले की शुरुआत मैंने इस प्रकार की,अरे......रे......रे....ओ......ओ...ओहो ! देखिए ना मुझसे एकदम से बहुत भारी भूल हो गयी,पर मैं तो ..........!!!यह सोच रहा था कि क्यों न  हम हर दिन की शुरुआत एक-दूसरे को "जय हिन्द "बोलकर क्यों नहीं करते ?
  उन्होंने मेरे प्रश्नों के उत्तर में जो कहा सुनने में विचित्र किन्तु अत्यन्त ही विचारनीय है,सच कह लें तो कुछ सीमा तक यथार्थ का चित्रांकन भी है। 
उनके अनुसार," मेरे प्रश्नों के उत्तर कुछ इस प्रकार थे-अजी!देखिए साहब,आम जनमानस कोई आधुनिक राजनेता  तो है नहीं कि पुलाव व नानान्न प्रकार के पकवानों से बिना कुछ करे-धरे ही भोजन की शुरुआत कर पाए,उसे अपने और अपने परिवार के दाल-रोटी के लिए हर दिन मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है।इसमें उसके अपनी सुध-बुध रहती ही नहीं तो और क्या भला कुछ याद रख सकेगा !
अब बताइए केवल ऐसे में भजन,कीर्तन,उस परम-परमात्मा का ध्यान,देशप्रेम से ओत-प्रोत गीत प्रत्येक दिन यदि इसे ही दैनिक कार्य के रूप में अपना लिया जाए,तो बताइए ऐसे में दाल-रोटी का जुगाड़ भले अच्छे  हो पाएगा !
    अतएव प्रत्येक दिन ही ऐसा कर पाना आज के युग में किसी      के लिए भी सम्भव हो ही नहीं सकता।

  मुझसे तो ये बाहरी दिखावा बिल्कुल भी नहीं होता।
 क्योंकि मुझे कहीं संसद-वंसद से भाषणबाजी तो करनी
 है नहीं ।

 कर्मयोगी भी सच्चे देशभक्त

पर इसका मतलब यह बिल्कुल भी नहीं है कि मुझमें देशभक्ति।  है ही नहीं,मैं भी हर भारतीय की तरह देशहित में एक कर्मयोगी की भाँति ही कार्य करता रहता हूँ।
पर आज की बात मेरे लिए इसलिए अतिविशेष है क्योंकि मुझे
सच्चे अर्थों में आज ही आज़ादी की अनुभूति हो रही है,इसी कारणवश मेरे दिल से आज "जय हिन्द"के बोल स्वतः ही फूट रहे हैं ,अन्यथा प्रत्येक दिन ही तो मुझे गुलाम भारत के ही दर्शन होते हैं।

हाँ,दोनों भारत में मतलब आज के और तब के भारत में फर्क इतना ही है कि तभी यह भारत देश अँग्रेजों का गुलाम था और... अँग्रेज़ीयत का है।


मैं उनके विचार सुन निस्तब्द होकर यह सोचने में विवश हो गया था !!!.......कि यह एक विचारशून्य भारत की तस्वीर तो है मगर यथार्थ ही!!!!

आज़ादी के वास्तविक मूल्य को भूल रहा है आधुनिक भारत

आज हर भारत आज़ाद हैं,सुख-चैन से अपने घर-परिवार में परिजनों के साथ रह रहा है,उसके लिए बस स्व-चिन्तन ही सम्पूर्ण सन्तुष्टि है।
स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाला आज का कुछ भारत केवल इसलिए जी रहा है ताकि येन-केन प्रकारेण अपने और अपनों का भरण-पोषण करते हुए अन्त में प्राण देते जाए।
आज उसके लिए आज़ादी का मूल्य केवल इतना ही है कि उसकी समाज में कद ऊँची बनी रहे।

आज़ादी का मूल्य आज केवल इतना ही रह गया है कि उनके परिजन स्वस्थ रहें,शेष चीजें तो होती ही रहती हैं।
सुशासन हो या कुशासन स्वयं की दाल-रोटी बस चलती रहे।

पाश्चात्यता के शृंखलाओं में बँधना आज़ादी का मूल्य

बाधाओं को पार कर,रक्त सरिताओं में असंख्य बलिदानों के पश्चात स्नान कर प्राप्त आजा़दी का मूल्य आज के भारत ने इस प्रकार लगाया है कि जिस अँग्रेज़ी शासन को उस भारत पे अधिकार जताने के लिए कठिनतम संघर्ष कर उखाड़ फेंका 
था,उसे इस भारत ने पुनः पाश्चात्यता के रूप में स्वीकार लिया है।
प्रतीत यह होता है कि आज भी भारत गुलामी की जंजीरों में,शृंखलाओं में बंधा किन्तु सहर्ष बँधा हो।
आज के कुछ भारत को अपनी स्वतंत्रता गुलामी और उस भारत की गुलामी स्वतंत्रता दिख रही है,यह विडंबना नहीं तो और क्या है ?
उस भारत ने अपनी मिट्टी,अपने आदर्शों व संस्कृतियों का कभी भी पाश्चात्यता से समझौता नहीं किया था,अपितु इसे नकारा था।
परन्तु इस भारत ने अपने आदर्शों व संस्कृतियों का पाश्चात्यता से समझौता कर लिया है और पाश्चात्यता ने इसे सहर्ष जब स्वीकार लिया तो परिणामस्वरूप वास्तविक भारत के दर्शन आज पाश्चात्य संस्कृति में हो रहे हैं।
वह जंजीर है इस मिट्टी के आदर्शों-संस्कृतियों का पाश्चात्यता से समझौता।
पाश्चात्यता से समझौता इन मूल्यों में कि भारत की भाषा,परम्परा,रीति-रिवाजों को दक्कियानूसी मानना और अँग्रेज़ीयत युक्त भावशैली व विचारशैली को अपनाकर खुद को श्रेष्ठ जानना क्या यह विडम्बना नहीं !

अमूल्य धरोहर भाषा-संस्कृति का ह्रास कर रहा आज का भारत

उस अमूल्य भारत की अमूल्य धरोहर थी संस्कृत भाषा व संस्कृति।

वह भारत संस्कृत था अर्थात जो अपनों की
भावनाओं,संवेदनाओं को समझता था।गुणीजनों,गुरुजनों व वृद्धजनों को यथोचित सम्मान देता था।
पर आज के पाश्चात्य भारत में सम्मान की परिभाषा जानु स्पर्श तक जाकर सीमित हो चुका है।उस भारत के माता-पिता आज मॉम-डैड बनकर रह गये हैं अर्थात जो अभी वर्तमान हैं,उन्हें इस भारत ने भूत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
पाश्चात्यता इस भारत पर इस कदर हावी हो गया है कि वस्त्रों की सीमाएँ घटती जा रही है और नाखून व बाल बढ़ते जा रहे हैं।
 उस भारत में जो माता-पिता,बड़े बुजूर्ग गृहशोभा होते थे,संबल होते थे।आज....के कुछ भारत को इनका साथ रहना दम घोंटना लग रहा है।

खण्ड-खण्ड दिख रहा अखण्ड भारत

वह भारत शृंखलाओं में बँधा था,पर खण्डों में विभाजित नहीं था,पर आज का भारत शृंखलाओं में बँधित नहीं फिर भी खण्ड-खण्ड है।
उस समय भारत में केवल एक ही जाति भारतीय और धर्म मानवता होती थी,पर आज की स्थिति कुछ विपरीत ही प्रतीत होती है।आज सामाजिक समरसता,मेल-जोल लेषमात्र भी नहीं दिखती,हालांकि ऐसा नहीं है कि वह भारत खंडित नहीं था,बिल्कुल था तभी तो अँग्रेज़ी शासन उस भारत पर आधिपत्य स्थापित कर पाई।
पर अँग्रजों के आधिपत्य के लिए दिया गया तर्क पूर्णतः प्रमाणिक सत्य नहीं, क्योंकि उस खंडित भारत के एक भूभाग पर उनका आधिपत्य अवश्यमेव था,पर उस भारत की भी अखण्डता के लिए एकमेव कारक थी आज़ादी! जिसके कारण विभेदों-मतभेदों पर अँकुश लग रहा था।
पर आज तो वह कारक भी शेष नहीं क्योंकि आज़ादी,स्वतंत्रता,उन्मुकता हमने पूर्व में ही प्राप्त कर ली थी।
 अतः कुंठित भारत के मन को नियंत्रित करने का वो कारक भी शेष नहीं रह गया है ।
आज के कुछ एक भारत के हृदय में विभिन्न प्रकार की जातिगत व धार्मिक मतभेद ने जन्म ले लिया है।मतभेद होता तो,भेद मिटाने का प्रयत्न किया जाता,पर जब मनभेद हो जाय तो यह दूरी नाप पाना तनिक कठिन हो जाता है।

अमर सपूत इस भारत माँ के दर्शन को जब आए 

उस भारत के जब सभी अमर सपूत मेरी कल्पना में अपनी अमरता के पश्चात भारत में आए,तो उनके भाव अपनी कपोल कल्पना से चित्रांकन करने के मेरे प्रयत्न को  
पाठकगण पढ़-समझकर अपने विचार  अवश्य रखें:-

कपोल कल्पना

आज १५ अगस्त २०२३ है,मैं सुखदेव और राजगुरु माँ भारती की कृपा से २३ मार्च १९३१ को माता के आँचल में विलीन हो जाने के इतने साल पश्चात .....पहली बार माता के कृपा से पुनः  इस लोक में केवल ये देखने आए कि हमने अपने प्यारे भारतवासियों को जो भारत सौंपा था, माता के ये बेटे,मेरे भाई-बंधु, मेरी इस प्यारी माता का कितना ध्यान रखते हैं,कितनी इनमें माता के प्रति भक्ति भावना शेष है.......क्या ये हमें आज भी जानते हैं।
क्या वास्तव में माँ हमारी आजाद हो पाई या हमारी कुर्बानी,हमारा बलिदान व्यर्थ हो गया....
ओह! ये क्या,हे माँ क्या हो रहा है आज तेरी छाँव में।इतना स्वार्थ,इतनी ईर्ष्या....हे माँ!बताओ क्या इसीलिए हमने अपना जीवन पूर्णरूपेण इनकी खुशी के लिए अर्पण कर दिया....
ओह! सुखदेव कुछ देखा तुमने भाई!ये क्या हो रहा है। भ्रष्टाचार हमारे देश में...? हे विधाता! हमने कभी ऐसा सोचा भी नहीं था.....हे माँ हमें क्षमा करना,हम रक्त दान कर भी .....ओह! तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सके....हे माँ भारती, हे माता ये सब क्या हो रहा है ??? हमने तो केवल एक ही रंग सजाया था अपने भाईयों पर; किंतु आज.... उन्होंने तो अपना रंग ही परिवर्तित कर लिया और बँट गए हैं कई रंगों में!!!!!
ओह,हे पुण्यस्थली!हे जन्मभूमि तेरा ऐसा तिरस्कार, तुम्हारी प्रिय हिन्दी की ऐसी स्थिति...
क्या हमारे भाई-बंधु भूल गए उनके उन्नत संस्कार,हिन्दी....  अँग्रेज़ी को इतनी तरज़ीह क्यों?????? आखिर क्यों!!!!
खेद है मुझे, इतना स्वार्थ,कुर्सी की ऐसी लीप्सा..............कि तुम्हारे टुकड़े तक के नारे.....हे माँ, ये क्या स्थिति हो गयी है यहाँ! नारियों की ये दुर्दशा...ओह!!!!!
अरे भाईयों,बंधुओं रूको। तुम दानव नहीं मानव हो!। ये क्या....कर दिया तुमने....
अरे ओ साथियों !रुको कुछ तो माता के आँसुओं का सम्मान करो।सुखदेव !सुखदेव !यहाँ कितने धर्मों का निर्माण हो गया है,हमने तो केवल मानवता !मानवता बस मानवता ही धर्म यहाँ स्थापित किया था,पर ये क्या...मानव ने तो विभिन्न धर्मों का निर्माण आज कर लिया है !

आज के भारत को देखकर केवल जो भाव स्पष्ट हो रहे उसे इस व्यंग्य आलेख के आधार पर व्यंग्य काव्य के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:-
वन्दे मातरम्  कहें अगर तो, क्या तभी देश मेरा है।
मन से पूजो दिल से चाहो,कह दो जग से मेरा है।।
बनना वैरी होता है जी ,काम बड़ा आसाँ लोगों।
 मित्र शत्रु को अजी बनाना,काम नहीं आसाँ लोगों।।
जीवन यह अनमोल धरोहर,सँभल-सँभल कर खर्चो तुम।
भारत माँ के काम न आए,फिर क्या जीवन समझो तुम।।
करें देश के हित में जो भी, देशप्रेम ही कहलाए।
नहीं देश से धोखा करना,कोई कितना बहलाए।।

कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न
१. व्यंग्य से आप क्या समझते हैं?कुछ लोग इसका मतलब हास्य समझते हैं,कहाँ तक उचित है स्पष्ट करें।
उत्तर-व्यंग्य का अर्थ किसी विषयवस्तु,स्थान व व्यक्तिविशेष में समाहित गुण व अवगुण को सन्तुलित भाव में पूर्णतः आवश्यक सामग्रियों के माध्यम से स्पष्ट करना होता है।
जी नहीं !व्यंग्य का मतलब हास्य कदापि नहीं होता,अपितु हास्य एक विधा है जिसमें अपने विषयवस्तु को हल्के-फुल्के उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट किया जाता है।

२. क्या व्यंग्यकार विषयवस्तु के गुण- अवगुण को स्वाभाविक रूप में दर्शाता है या अस्वाभाविक रूप में ?
उत्तर-२..हाँ, एक व्यंग्यकार विषयवस्तु के गुण- अवगुण को स्वाभाविक रूप में ही दर्शाता है।

३.अस्वाभाविक रूप से विषयवस्तु को दर्शाने से हमारा  तात्पर्य क्या है ?
उत्तर- अस्वाभाविक रूप में विषयवस्तु को दर्शाने से हमारा तात्पर्य व्यंग्य को बलाघात प्रस्तुत करने से है,जबकि व्यंग्य का काम ललकारना है,पुचकारना नहीं।।

४. आज आज़ादी को पूरे कितने वर्ष हो गए ?
उत्तर- आज आज़ादी को पूरे ७६ वर्ष हो गए।

५.झण्डोत्तोलन व ध्वजारोहन में क्या अन्तर है ?
उत्तर-ध्वज को स्वतंत्रता दिवस में ऊपर की तरफ खींचकर  फहराना ध्वजारोहण कहलाता है।
जबकि गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय ध्वज ऊपर बंधा रहता है और उसको खोलकर फहराते हैं,इसे झण्डा फहराना कहलाता है।

६. कुकुभ छंद की परिभाषा व विधान को बताएँ ?
उत्तर-यह एक सममात्रिक छंद है,इस चार पदों के छंद में प्रति पद ३० मात्राएँ होती हैं।प्रत्येक पद १६ और १४ मात्रा के दो चरणों में बँटा हुआ रहता है।विषम चरण १६ मात्राओं का और सम चरण १४ मात्राओं का होता है। दो-दो पद के तुकान्तता का नियम है।
७.पद्धरि छंद की परिभाषा व विधान को बताएँ ?
उत्तर- चार चरणों के इस सममात्रिक छंद में १६ मात्राएँ प्रति चरण व आरम्भ द्विकल से और अंत जभान से  होता है।इसे दो-दो चरण समतुकांत भी रखा जा सकता है।

८. अमी छंद की परिभाषा तथा विधान बताएँ ?8
उत्तर-इस वर्णिक छंद के विधान में प्रति चरण नौ वर्ण होते हैं।गुरुजनों के मार्गदर्शनानुसार गणावली- नसल जभान यमाता।
इसकी मापनी १११,१२१,१२२ होती है,इसके चार चरण होते हैं

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