दुल्हा बिकता है


आज समाज में दहेज एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है,सामान्य तौर पर लोगों ने यह धारणा बना रखी है जो वो खुद नहीं अर्जित कर सके ,वो वह दहेज से पूर्ण करेंगे यानि दुल्हा बिकेगा।

विवाह दो आत्माओं का मिलन है,पर इसे आज दहेज लोलुपता ने व्यापार बना दिया है।

दुल्हा बिकता है एक विचारने योग्य विषय है,क्या आज पुरुषार्थ क्षीण होता जा रहा।

प्राचीनकाल में विभिन्न प्रकार की प्रतियोगिता की व्यवस्था थी पुरुषार्थ सामर्थय जाँचने की,प्रतियोगिता विजित होने पर ही वर को वरा जाता था,क्या आज दुल्हा बेचने की प्रक्रिया दृष्टिगोचर नहीं हो रही।



त्रिदेवों ने जब संसार का निर्माण किया,तो उन्हें सृष्टि को सुचारू रूप से गतिमान रखने के लिए दो ऊर्जा- पूँजों की अनिवार्यता थी,जिसे पुरुष व प्रकृति तथा सरलार्थ में नर और नारी के रूप में हम जानते हैं।

    पुरुष व प्रकृति के संयोग से ही यह सृष्टि चक्र गतिमान है।इन दोनों की ही आन्तरिक ऊर्जा के स्पर्श का प्रतिफल है मानव समुदाय की उत्पत्ति।

   पुरुष व प्रकृति का एक दूजे से अन्योन्याश्रय संबंध उसी भाँति का है जिस भाँति जल और मछली का,आत्मतत्व व शरीर का।

   इस संबंध में इस प्रकार कह लिया जाए कि इस चक्र को पूर्णतः गतिमान रखने के लिए मानव समुदाय की परिकल्पना की गयी।इस समुदाय को विकसित करने हेतु ही विवाह,परिणय,शादी,निकाह इत्यादि की व्यवस्था की गयी जिससे सृष्टि बीज का सदैव पुरुष व प्रकृति को माध्यम बना सृष्टि में रोपण कर जीवन चक्र को गतिमान रखा जा सके।

  पर सृष्टि बीज का रोपण कालांतर में ऐसे ही नहीं किया जाता था,इसके लिए कालांतर में पुरुषार्थ के परीक्षण की पूर्ण व्यवस्था रहती थी,क्योंकि पुरुष पुरुषार्थ का प्रतीक है और प्रकृति करुणा,क्षमा,ममत्व व शक्ति की।

 इस पुरुषार्थ परीक्षण का दर्शन हमारे धर्मशास्त्रों, पुराकथाओं, प्राचीनतम अभिलेखों इत्यादि में होता है, इसके प्रमाण के रूप में त्रेतायुग में सीता स्वयंवर का आयोजन कर शिव धनुष के संधान का उल्लेख, महाभारत काल में जलपात्र में मीन के प्रतिबंब को देखकर मीन चक्षु को लक्ष्य मान संधान का उल्लेख पुरुषार्थ परीक्षण का ही तो द्योतक है।

  पर आज कालचक्र के परिवर्तन के पश्चात इस परीक्षण की कसौटी में कुछ परिवर्तन कर दिया गया है जिससे पुरुष आज पुरुषार्थ कम आलस्य का स्वामी अधिक प्रतीत होता है।

हालांकि आज भी उसके पुरुषार्थ को ठोस रखने हेतु परीक्षण की व्यवस्था है,पर यह व्यावहारिक न होकर काम चलाऊ कही जा सकती है,आज पुरुष अपने पुरुषार्थ के प्रमाण के रूप में तमाम कागजी डिग्रियों को वरीयता देता है।पुराकाल में पुरुष अपने पुरुषार्थ का प्रमाण स्वयं देता था,आज उसके प्रमाण की प्रस्तुति उसके अभिभावकों तथा शासन प्रशासन द्वारा निर्गत पत्रों द्वारा प्रकृति पक्ष को प्रस्तुत किया जाता है।

इस प्रस्तुति में उसके अभिभावकों द्वारा परिणय व्यवस्था में विभिन्न माँगों के रूप में प्रकृति पक्ष के सम्मुख रखा जाता है, वह भी पूर्ण गर्वित होकर कहते हुए मुझे इसे आज इस योग्य बनाने में इतना व्यय करना पड़ा है जो पुरुष के पुरुषार्थ का तो नहीं अपितु व्यवसाय का प्रतीक समझा जा सकता है।

       इसे व्यवसाय इसलिए कहना उचित जान पड़ रहा है क्योंकि पुरुष ने अभी यही धारणा बना रखी है कि आज तक जो भी भौतिक संसाधन का प्रबंध व इससे पूर्व नहीं कर पाया है वह प्रकृति पक्ष से अवश्य ही प्राप्त कर लेगा,तो क्या यह प्रश्न सार्थक नहीं;  दुल्हा बिकता है!!!!!


भारत भूषण पाठक 'देवांश'🙏🌹🙏


संशोधन सहायक- आ०रिपुदमन झा पिनाकी जी

Translation:-


*the bridegroom sells*


When the trinity created the world, they needed two energy pools to keep the universe moving smoothly, which we know as man and nature and in simple sense as male and female.

    Due to the union of man and nature, this world cycle is moving. The result of the touch of the inner energy of both of them is the origin of human community.

   The interdependent relationship between man and nature is in the same way as that of water and fish, the soul and the body.

   In this regard, it should be said in such a way that human community was envisaged to keep this cycle in full swing. In order to develop this community, arrangements were made for marriage, nikaah, parinayotsava, etc. By making nature a medium and planting it in the universe, the life cycle can be kept in motion.

  But the seed of the world was not planted like this over a period of time, for this, there was a complete system of testing the effort over time, because the man is a symbol of effort and the nature of compassion, forgiveness, motherhood and power.

 The philosophy of this effort is found in our scriptures, mythology, oldest records, etc., as evidence of this, by organizing Sita Swayamvar in Tretayuga, mention of the breaking Shiva's bow, in the Mahabharata period, after seeing the reflection of Pisces in a water vessel, the target of Pisces eye The mention of lakshya Sandhaan is a sign of the test of effort.

  But today after the change of Kalachakra, some changes have been made in the criterion of this test, due to which man today seems to be the owner of less laziness than man.

Although even today there is a system of testing to keep his effort solid, but it cannot be said to be practical but workable, today men give preference to all paper degrees as proof of their effort. In ancient times, men are proof of their efforts. Used to give himself, today the presentation of his proof is presented to the girls side through letters issued by his parents and government administration.

In this presentation, in the form of various demands in the result system by his parents, he is placed in front of the nature side, saying that too with full pride, I have to spend so much in making it worthy today, which is not only of man's effort but business. can be interpreted as a symbol.

       It seems appropriate to call it a business because man has just made the assumption that whatever material resource he has not been able to manage before and he will definitely get it from the nature side, is this question not meaningful? ; The bridegroom sells!!!!


Bharat Bhushan Pathak Devansh


Revision Assistant- Respected Ripudaman Jha Pinaki ji


१.व्यंग्यात्मक लेख किसे कहते हैं ?


उत्तर- यह एक ऐसी लेखन शैली है जिसमें कि लेखन के माध्यम से उपहास,मज़ाक और आलोचना का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।उदाहरणार्थ-प्रेमचंद के फटे जूते।


२.क्या व्यंग्य के अन्तर्गत हल्की-फुल्की मज़ाक को सम्मिलीत की जा सकती है?


उत्तर-जी नहीं !व्यंग्य के अन्तर्गत हल्की-फुल्की मज़ाक को सम्मिलीत नहीं किया जा सकता है,अपितु यह विषयवस्तु पर केन्द्रित एक तथ्यपरक आलेख होती है जो पाठकों को व्यंग्य का कारण समझाती-सी प्रतीत होती है।


३.एक आलेख के लिए आवश्यक बिन्दुएं क्या-क्या हो सकती हैं ?


उत्तर- एक आलेख के लिए आवश्यक बिन्दुएं निम्लिखित हो सकती हैं:-


(१)भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए।


(२)विचार कथात्मक न हो कर विवेचन विश्लेषण वाले होने चाहिए।


(३)आलेख से पाठक की जिज्ञासा उत्पन्न हो जाए ऐसा होना चाहिए।


(४)आलेख हमेशा ज्वलंत और प्रसिद्द मुद्दों या समारोह पर होना चाहिए।


(५)आलेख से भावुकता संभव हो सकती है।


(६)आकार के विषय वस्तु पर आलेख निर्भर हो सकता है।


४.व्यंग्य के तत्व क्या हैं ?


उत्तर- तत्व वे बिंदु है जिस पर किसी विधा का मूल्यांकन किया जाता हैं। इसमें उन परिस्थितियों का वर्णन किया जाता है जो इस विधा के जन्म के कारक होते है। साहित्य समीक्षकों द्वारा अन्य विधाओं की तरह ही व्यंग्य के तत्वों की भी चर्चा की है। उनके अनुसार व्यंग्य के निम्न तत्व है:-


विसंगतियों की उपस्थिति


विसंगति के बगैर व्यंग्य की कल्पना करना संभव नहीं है। विसंगति ही व्यंग्य की आत्मा है। इस प्रकार विसंगति व्यंग्य का एक अनिवार्य तत्व है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा हमारा समाज विसंगतियों से भरा पड़ा है। ये विसंगतियाँ पुरातन काल में भी थी और वर्तमान में भी। ये विसंगतियाँ व्यक्ति व समाज को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित करती है। 




व्यंग्यकार सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक व आर्थिक विसंगतियों को लक्ष्य कर अपना व्यंग्य-कर्म करता है तथा पढ़ने वाला पाठक भी इन विसंगतियों के बारे में सोचने को विवश हो जाता है। ये विसंगतियाँ ही व्यंग्यकार को उसके लक्षित लक्ष्य तक पँहुचाता है।




इन विसंगतियों से समाज को मुक्त करना अंसभव है किन्तु इन्हें कुछ हद तक कमजोर अथवा कम किया जा सकता है वह भी व्यंग्य के प्रहार द्वारा। व्यंग्यकार विचारों का मंथन कर समाज की विषमताओं को व्यंग्य रचना द्वारा समाज के सम्मुख रखता है।


  ५. साहित्य की प्रगतिशील व सकारात्मक सोच व्यंग्य लेखन के दृष्टिकोण से क्या है ?


उत्तर- साहित्यकार की सकारात्मक सोच उसे एक अच्छे व्यंग्य लेखन की ओर अग्रसित करता है। समाज से विसंगतियों का पलायन उसका उद्देश्य होता है तथा इसी को केद्रित कर वह अपनी रचना लिखता है। वह उन सभी बुराईयों का पुरजोर विरोध करता है जो समाज की प्रगति में बाधक हैं। जो व्यंग्यकार अपनी व्यंग्य रचना द्वारा साम्प्रदायिकता, समाज में व्याप्त अंधविश्वास, कुरीति, गरीबी, बेरोजगारी व रूढ़िवादिता का विरोध करे वहीं व्यंग्य सफल व्यंग्य माना जायेगा अन्यथा वह व्यंग्य मात्र हास्य-विनोद बनकर रह जायेगा। 


व्यंग्यकार निरीह, शोषितों व गरीबों की करूणा व पीड़ा को महससू करता है तथा सूदखोरों, महाजनों तथा शोषक वर्ग पर व्यंग्य करता है।


        (गूगल साभार:-https://www.scotbuzz.org/2021/01/vyang-ka-arth.html?m=1)


६. क्या व्यंग्य का काम पुचकारना है,निबंधों की भांति समझाना है ?


उत्तर- नहीं,व्यंग्य ललकारता है,पुचकारता नहीं।वह सामाजिक कुरीतियों,पाखण्डों,बुराईयों पर कुठाराघात करता है।


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